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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 220
ऋषिः - विश्वामित्रो गाथिनो जमदग्निर्वा
देवता - इन्द्रः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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आ꣡ नो꣢ मित्रावरुणा घृ꣣तै꣡र्गव्यू꣢꣯तिमुक्षतम् । म꣢ध्वा꣣ र꣡जा꣢ꣳसि सुक्रतू ॥२२०॥
स्वर सहित पद पाठआ꣢ । नः꣣ । मित्रा । मि । त्रा । वरुणा । घृतैः꣢ । ग꣡व्यू꣢꣯तिम् । गो । यू꣣तिम् । उक्षतम् । म꣡ध्वा꣢꣯ । र꣡जाँ꣢꣯सि । सु꣣क्रतू । सु । क्रतूइ꣡ति꣢ ॥२२०॥
स्वर रहित मन्त्र
आ नो मित्रावरुणा घृतैर्गव्यूतिमुक्षतम् । मध्वा रजाꣳसि सुक्रतू ॥२२०॥
स्वर रहित पद पाठ
आ । नः । मित्रा । मि । त्रा । वरुणा । घृतैः । गव्यूतिम् । गो । यूतिम् । उक्षतम् । मध्वा । रजाँसि । सुक्रतू । सु । क्रतूइति ॥२२०॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 220
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 3; मन्त्र » 7
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 11;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 3; मन्त्र » 7
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 11;
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पदार्थ -
(सुक्रतू-मित्रावरुणा) शोभन प्रज्ञा कर्म वाले मित्र-स्नेही सखारूप और वरुण-वरणीय शरणद आदि रूप परमात्मा (नः) हमारी गव्यूतिम् इन्द्रियों की गतिविधि को (घृतैः) ज्ञान प्रदीपन प्रवाहों से (आ-उक्षतम्) सीञ्च दो, तथा (मध्वा रजांसि) मधुर प्रवाहों से रञ्जनात्मक मन, बुद्धि, चित्त, अहङ्कार स्थानों को सींच दो।
भावार्थ - परमात्मा शोभन ज्ञान कर्मवान् स्नेहीसखा रूप से इन्द्रियों को दीपन प्रवाहों से और वरुण-वरणीय शरणदानरूप मधुर प्रवाहों से मन बुद्धि चित्त अहङ्कार स्थानों को सींच देता है॥७॥
विशेष - ऋषिः—विश्वामित्रो जमदग्निर्वा (सबका मित्र या प्रज्वलित ध्यानाग्नि वाला)॥<br>
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