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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 221
ऋषिः - प्रस्कण्वः काण्वः
देवता - मरुतः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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उ꣢दु꣣ त्ये꣢ सू꣣न꣢वो꣣ गि꣢रः꣣ का꣡ष्ठा꣢ य꣣ज्ञे꣡ष्व꣢त्नत । वा꣣श्रा꣡ अ꣢भि꣣ज्ञु꣡ यात꣢꣯वे ॥२२१॥
स्वर सहित पद पाठउ꣢त् । उ꣣ । त्ये꣢ । सू꣣न꣡वः꣢ । गि꣡रः꣢꣯ । का꣡ष्ठाः꣢꣯ । य꣣ज्ञे꣡षु꣢ । अ꣣त्नत । वाश्राः꣢ । अ꣣भिज्ञु꣢ । अ꣣भि । ज्ञु꣢ । या꣡त꣢꣯वे ॥२२१॥
स्वर रहित मन्त्र
उदु त्ये सूनवो गिरः काष्ठा यज्ञेष्वत्नत । वाश्रा अभिज्ञु यातवे ॥२२१॥
स्वर रहित पद पाठ
उत् । उ । त्ये । सूनवः । गिरः । काष्ठाः । यज्ञेषु । अत्नत । वाश्राः । अभिज्ञु । अभि । ज्ञु । यातवे ॥२२१॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 221
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 3; मन्त्र » 8
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 11;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 3; मन्त्र » 8
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 11;
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पदार्थ -
(यज्ञेषु) अध्यात्मयज्ञों में (ये-उ) वे निश्चय (गिरः) वाणी—स्तुति के (सूनवः) प्रकट करने वाले—उच्चारण करने वाले उपासक स्तोता जन (काष्ठाः-उद्-अत्नत) दिशाओं में “काष्ठा दिक्” [निघं॰ १.६] अपनी-अपनी दिशाओं का विस्तार करते हैं (वाश्राः-अभिज्ञु यातवे) ये स्तोता स्तवन करते हुए अल्पवयस्क बालक जैसे घुटने के बल चलते हैं ऐसे परमात्मा की ओर जाने को समर्पण करते हैं।
भावार्थ - अध्यात्मयज्ञों में वाणी स्तुति को प्रकट करने वाले स्तोता अपनी दिशा-पद्धति या भूमि का विस्तार करते हैं पुनः स्तवन करते हुए अल्पायु वाले बालक जैसे चलने को घुटने के बल चलते हैं ऐसे परमात्मा के प्रति जाने के लिये अपना समर्पण करते हैं॥८॥
विशेष - ऋषिः—प्रस्कण्वः (प्रकृष्ट मेधावी)॥<br>
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