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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 251
ऋषिः - मेधातिथिर्मेध्यातिथिर्वा काण्वः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - बृहती
स्वरः - मध्यमः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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उ꣢दु꣣ त्ये꣡ मधु꣢꣯मत्तमा꣣ गि꣢र꣣ स्तो꣢मा꣣स ईरते । स꣣त्राजि꣡तो꣢ धन꣣सा꣡ अक्षि꣢꣯तोतयो वाज꣣य꣢न्तो꣣ र꣡था꣢ इव ॥२५१॥
स्वर सहित पद पाठउ꣢द् । उ꣣ । त्ये꣢ । म꣡धु꣢꣯मत्तमाः । गि꣡रः꣢꣯ । स्तो꣡मा꣢꣯सः । ई꣣रते । सत्राजि꣡तः꣢ । स꣣त्रा । जि꣡तः꣢꣯ । ध꣣नसाः꣢ । ध꣣न । साः꣢ । अ꣡क्षि꣢꣯तोतयः । अ꣡क्षि꣢꣯त । ऊ꣣तयः । वाजय꣡न्तः꣢ । र꣡थाः꣢꣯ । इ꣣व ॥२५१॥
स्वर रहित मन्त्र
उदु त्ये मधुमत्तमा गिर स्तोमास ईरते । सत्राजितो धनसा अक्षितोतयो वाजयन्तो रथा इव ॥२५१॥
स्वर रहित पद पाठ
उद् । उ । त्ये । मधुमत्तमाः । गिरः । स्तोमासः । ईरते । सत्राजितः । सत्रा । जितः । धनसाः । धन । साः । अक्षितोतयः । अक्षित । ऊतयः । वाजयन्तः । रथाः । इव ॥२५१॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 251
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 1; मन्त्र » 9
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 2;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 1; मन्त्र » 9
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 2;
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पदार्थ -
(त्ये-उ) वे फिर (मधुमत्तमाः) अधिक मधुर (गिरः) स्तुतियाँ (स्तोमासः) प्रशंसावचन (उदीरते) उच्चरित हो रही हैं (सत्राजितः) समस्त संघर्षों को जीतने वाले (धनसाः) अमृत धन वाले (अक्षितोतयः) अक्षीण रक्षा वाले परमात्मा के (वाजयन्तः) अमृत भोग को चाहते हुए (रथाः-इव) रथों की निरन्तर गति की भाँति गति करते हैं—आगे बढ़ा करते हैं।
भावार्थ - परमात्मन्! हमारी स्तुतियाँ और प्रशंसा वचन बहुत मधुर निरन्तर उच्चरित हो रहे हैं ये संघर्षों को जीतने वाली अमृत भोगों वाली क्षीण न होने वाली रक्षायुक्त हैं अपने अमृत भोग को चाहते हुए रथों की भाँति तेज गति करते हैं॥९॥
विशेष - ऋषिः—मेधातिथिः—(पवित्र गुणों में अतन गमन प्रवेश करने वाला उपासक)॥<br>
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