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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 252
ऋषिः - देवातिथिः काण्वः देवता - इन्द्रः छन्दः - बृहती स्वरः - मध्यमः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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य꣡था꣢ गौ꣣रो꣢ अ꣣पा꣢ कृ꣣तं꣢꣫ तृष्य꣣न्ने꣡त्यवे꣢रिणम् । आ꣣पित्वे꣡ नः꣢ प्रपि꣣त्वे꣢꣫ तूय꣣मा꣡ ग꣢हि꣣ क꣡ण्वे꣢षु꣣ सु꣢꣫ सचा꣣ पि꣡ब꣢ ॥२५२॥

स्वर सहित पद पाठ

य꣡था꣢꣯ । गौ꣣रः꣢ । अ꣣पा꣢ । कृ꣣त꣢म् । तृ꣡ष्य꣢न् । ए꣡ति꣢꣯ । अ꣡व꣢꣯ । इ꣡रि꣢꣯णम् । आ꣣पित्वे꣢ । नः꣣ । प्रपित्वे꣢ । तू꣡य꣢꣯म् । आ । ग꣣हि । क꣡ण्वे꣢꣯षु । सु । स꣡चा꣢꣯ पि꣡ब꣢꣯ ॥२५२॥


स्वर रहित मन्त्र

यथा गौरो अपा कृतं तृष्यन्नेत्यवेरिणम् । आपित्वे नः प्रपित्वे तूयमा गहि कण्वेषु सु सचा पिब ॥२५२॥


स्वर रहित पद पाठ

यथा । गौरः । अपा । कृतम् । तृष्यन् । एति । अव । इरिणम् । आपित्वे । नः । प्रपित्वे । तूयम् । आ । गहि । कण्वेषु । सु । सचा पिब ॥२५२॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 252
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 1; मन्त्र » 10
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 2;
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पदार्थ -
(यथा) जैसे (गौरः) मृग-जाङ्गल पशु—हरिण (तृष्यन्) प्यासा हुआ प्यास को प्राप्त हुआ (इरिणम्) तृणादि ओषधियों से अनाच्छादित निर्मल दृश्यमान “इरिणः—अपरता अस्मादोषधय इति वा” [निरु॰ ९.६] (अपाकृतम्) ‘अद्भिः कृतम्’ जल भरे स्थान—जलाशय को (अव-एति) अवतरित होता दौड़कर प्राप्त होता है ऐसे (आपित्वे प्रपित्वे) बन्धुत्व प्राप्त हो जाने पर (नः) हमें (तूयम्-आगहि) हे परमात्मन्! शीघ्र “तूयं क्षिप्रनाम” [निघं॰ २.१५] प्राप्त हो (कण्वेषु सचा सुपिब) हम मेधावी उपासकों के अन्दर साक्षात् होकर हमारे साथ सम्बन्ध करके सुन्दर उपासनारस का पान कर स्वीकार कर।

भावार्थ - हे परमात्मन्! जैसे प्यासा हरिण तृणादि से न ढके जलाशय को शीघ्र प्राप्त होता है ऐसे ही तू हमारे बन्धुत्व प्राप्त होने पर हम मेधावी उपासकों में प्राप्त साक्षात् होकर हमारे साथ बन्धुत्व कर हमारे सुन्दर उपासनारस को पिया कर—स्वीकार किया कर॥१०॥

विशेष - ऋषिः—देवातिथिः (उपास्य देव के लिये—उसकी प्राप्ति के लिये निरन्तर गति प्रवृत्तिशील मेधावी का शिष्य)॥<br>

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