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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 253
ऋषिः - भर्गः प्रागाथः देवता - इन्द्रः छन्दः - बृहती स्वरः - मध्यमः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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श꣣ग्ध्यू꣢३षु꣡ श꣢चीपत꣣ इ꣢न्द्र꣣ वि꣡श्वा꣢भिरू꣣ति꣡भिः꣢ । भ꣢गं꣣ न꣡ हि त्वा꣢꣯ य꣣श꣡सं꣢ वसु꣣वि꣢द꣣म꣡नु꣢ शूर꣣ च꣡रा꣢मसि ॥२५३॥

स्वर सहित पद पाठ

श꣣ग्धि꣢ । उ꣣ । सु꣢ । श꣣चीपते । शची । पते । इ꣡न्द्र꣢꣯ । वि꣡श्वा꣢꣯भिः । ऊ꣣ति꣡भिः꣢ । भ꣡ग꣢꣯म् । न । हि । त्वा꣣ । यश꣡स꣢म् । व꣣सुवि꣡द꣢म् । व꣣सु । वि꣡द꣢꣯म् । अ꣡नु꣢꣯ । शू꣣र । च꣡रा꣢꣯मसि ॥२५३॥


स्वर रहित मन्त्र

शग्ध्यू३षु शचीपत इन्द्र विश्वाभिरूतिभिः । भगं न हि त्वा यशसं वसुविदमनु शूर चरामसि ॥२५३॥


स्वर रहित पद पाठ

शग्धि । उ । सु । शचीपते । शची । पते । इन्द्र । विश्वाभिः । ऊतिभिः । भगम् । न । हि । त्वा । यशसम् । वसुविदम् । वसु । विदम् । अनु । शूर । चरामसि ॥२५३॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 253
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 2; मन्त्र » 1
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 3;
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पदार्थ -
(शचीपते-शूर-इन्द्र) हे प्रज्ञानों-प्रज्ञावालों चेतनों के तथा कर्मी-कर्म वालों-क्रिया वाले जड़ पदार्थों के स्वामिन् “शची प्रज्ञानाम” [निघं॰ ३.९] “शची कर्मनाम” [निघं॰ २.१] पराक्रमी परमात्मन्! तू (विश्वाभिः-ऊतिभिः) समस्त रक्षाविधियों से प्रज्ञानरक्षाओं क्रियारक्षाओं से (उ) निश्चय (सुशग्धि) रक्षा करने में सुशक्त है पूर्ण समर्थ है (यशसं त्वा हि भगं न) यश वाले जिससे हमारा यश हो ऐसे तुझ ऐश्वर्यस्वरूप के समान (वसुविदम्) अध्यात्मधन—मोक्षैश्वर्य के प्राप्त कराने वाले के प्रति (अनुचरामसि) अपने को समर्पित करते हैं।

भावार्थ - हे प्रज्ञानो प्रज्ञा वालों चेतनों तथा कर्म कलापों क्रिया वाले जड़ पदार्थों के स्वामिन् परमवीर पराक्रमी परमात्मन्! तू अपनी समस्त रक्षाओं प्रज्ञान रक्षाओं या क्रिया रक्षाओं द्वारा हमारी रक्षा करने में पूर्ण समर्थ है, ऐश्वर्यवान् के समान तुझ यशोरूप यश के निमित्तरूप मोक्षैश्वर्य प्राप्त कराने वाले के प्रति हम अपना समर्पण करते हैं॥१॥

विशेष - ऋषिः—भर्गः (ज्ञान से जाज्वल्यमान तेजस्वी)॥<br>

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