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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 272
ऋषिः - कलिः प्रागाथः देवता - इन्द्रः छन्दः - बृहती स्वरः - मध्यमः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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व꣣य꣡मे꣢नमि꣣दा꣡ ह्योपी꣢꣯पेमे꣣ह꣢ व꣣ज्रि꣡ण꣢म् । त꣡स्मा꣢ उ अ꣣द्य꣡ सव꣢꣯ने सु꣣तं꣡ भ꣣रा꣢ नू꣣नं꣡ भू꣢षत श्रु꣣ते꣢ ॥२७२॥

स्वर सहित पद पाठ

व꣣य꣢म् । ए꣣नम् । इदा꣢ । ह्यः । अ꣡पी꣢꣯पेम । इ꣣ह꣢ । व꣣ज्रि꣡ण꣢म् । त꣡स्मै꣢꣯ । उ꣣ । अद्य꣢ । अ꣣ । द्य꣢ । स꣡व꣢꣯ने । सु꣣त꣢म् । भ꣣र । आ꣢ । नू꣣न꣢म् । भू꣣षत । श्रुते꣢ ॥२७२॥


स्वर रहित मन्त्र

वयमेनमिदा ह्योपीपेमेह वज्रिणम् । तस्मा उ अद्य सवने सुतं भरा नूनं भूषत श्रुते ॥२७२॥


स्वर रहित पद पाठ

वयम् । एनम् । इदा । ह्यः । अपीपेम । इह । वज्रिणम् । तस्मै । उ । अद्य । अ । द्य । सवने । सुतम् । भर । आ । नूनम् । भूषत । श्रुते ॥२७२॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 272
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 3; मन्त्र » 10
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 4;
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पदार्थ -
(वयम्) हम (एनं वज्रिणम्) इस ओजस्वी परमात्मा को “वज्रो वा ओजः” [श॰ ८.४.१.२०] (इह) इस जीवन में (ह्यः-इदा) कल और अब—आज (अपीपेम) स्तुतियों से प्रवृद्ध करें और करते हैं (तस्मै-उ) उसके लिये ही (अद्य सवने) आरम्भ होने वाले स्तुति प्रसङ्ग में (सुतंभर ‘भरामः’) निष्पन्न उपासनारस को समर्पित करते हैं (नूनम्) निश्चित (श्रुते) ‘श्रुतेन’ श्रुत—श्रवण चतुष्टय—श्रवण, मनन, निदिध्यासन, साक्षात्कार से (आभूषत) ‘आभूषेम’ पुरुषव्यत्ययः पूजित करें, ध्यावें।

भावार्थ - हम ने इस ओजस्वी परमात्मा को गत कल स्तुतियों से प्रवृद्ध किया और आज भी करते हैं उसके लिये ही आरम्भ होने वाले भावी स्तुति प्रसङ्ग में निष्पन्न उपासनारस को समर्मित करते हैं निश्चित श्रवण चतुष्टय-श्रवण मनन निदिध्यासन साक्षात्कार से उसे पूजित करें ध्यावें-ध्याते हैं॥१०॥

विशेष - ऋषिः—कलिः (गुण कथनकर्त्ता)॥<br>

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