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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 289
ऋषिः - मेध्यातिथिः काण्वः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - बृहती
स्वरः - मध्यमः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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पा꣣हि꣡ गा अन्ध꣢꣯सो꣣ म꣢द꣣ इ꣡न्द्रा꣢य मेध्यातिथे । यः꣡ सम्मि꣢꣯श्लो ह꣢र्यो꣣र्यो꣡ हि꣢र꣣ण्य꣢य꣣ इ꣡न्द्रो꣢ व꣣ज्री꣡ हि꣢र꣣ण्य꣡यः꣢ ॥२८९॥
स्वर सहित पद पाठपा꣣हि꣢ । गाः । अ꣡न्ध꣢꣯सः । म꣡दे꣢꣯ । इ꣡न्द्रा꣢꣯य । मे꣣ध्यातिथे । मेध्य । अतिथे । यः꣢ । स꣡म्मि꣢꣯श्लः । सम् । मि꣣श्लः । ह꣡र्योः꣢꣯ । यः । हि꣣रण्य꣡यः । इ꣡न्द्रः꣢꣯ । व꣣ज्री꣢ । हि꣣रण्य꣡यः꣢ ॥२८९॥
स्वर रहित मन्त्र
पाहि गा अन्धसो मद इन्द्राय मेध्यातिथे । यः सम्मिश्लो हर्योर्यो हिरण्यय इन्द्रो वज्री हिरण्ययः ॥२८९॥
स्वर रहित पद पाठ
पाहि । गाः । अन्धसः । मदे । इन्द्राय । मेध्यातिथे । मेध्य । अतिथे । यः । सम्मिश्लः । सम् । मिश्लः । हर्योः । यः । हिरण्ययः । इन्द्रः । वज्री । हिरण्ययः ॥२८९॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 289
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 5; मन्त्र » 7
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 6;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 5; मन्त्र » 7
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 6;
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पदार्थ -
(मेध्यातिथे) हे पवित्र परमात्मा की प्राप्ति के लिए निरन्तर गमन करने वाले जीवात्मन्! तू (अन्धसः-मदे) आध्यानीय परमात्मा के सङ्ग से प्राप्त होनेवाले हर्ष—आनन्द के निमित्त (गाः पाहि) अपनी इन्द्रियों की रक्षा कर अनुचित भोगों में न जाने दे “इन्द्रियं वै वीर्यं” [श॰ ५.४.३.१०] (यः) जो (हर्योः सम्मिशलः) ऋक् और सामों—स्तुति और उपासना के होने पर सम्यक् समागम को प्राप्त होनेवाला “ऋक्सामे वा इन्द्रस्य हरी” [मै॰ ३.१०.६] (यः-इन्द्रः-हिरण्ययः) जो इन्द्र परमात्मा ज्योतिर्मय है (वज्री हिरण्ययः) जो ओजस्वी आत्मा बलवाला ज्योतिर्मय है।
भावार्थ - हे पवित्र परमात्मा की प्राप्ति के लिये निरन्तर अतनशील उपासक! उस समन्तरूप से ध्यान करने योग्य परमात्मा के आनन्द के निमित्त अपनी इन्द्रियों की अन्यथा चेष्टा—अनुचित भोगों से बचा—संयम सदाचार में रख, जो परमात्मा स्तुति और उपासना के होने पर सम्यक् मिलने वाला है जो परमात्मा ज्योतिर्मय है वह परमात्मा सचमुच ओजस्वी—आत्मिक बल से युक्त ज्योतिर्मय है॥७॥
विशेष - ऋषिः—मेध्यातिथिः (पवित्र करने वाले परमात्मा में निरन्तर गमन प्रवेश करने वाला उपासक)॥<br>
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