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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 323
ऋषिः - द्युतानो मारुतः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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अ꣡व꣢ द्र꣣प्सो꣡ अ꣢ꣳशु꣣म꣡ती꣢मतिष्ठदीया꣣नः꣢ कृ꣣ष्णो꣢ द꣣श꣡भिः꣢ स꣣ह꣡स्रैः꣢ । आ꣢व꣣त्त꣢꣫मिन्द्रः꣣ श꣢च्या꣣ ध꣡म꣢न्त꣣म꣢प꣣ स्नी꣡हि꣢तिं नृ꣣म꣡णा꣢ अध꣣द्राः꣢ ॥३२३॥
स्वर सहित पद पाठअ꣡व꣢꣯ । द्र꣣प्सः꣢ । अ꣣ऽशुम꣡ती꣢म् । अ꣣तिष्ठत् । ईयानः꣢ । कृ꣣ष्णः꣢ । द꣣श꣡भिः꣢ । स꣣ह꣡स्रैः꣢ । आ꣡व꣢꣯त् । तम् । इ꣡न्द्रः꣢꣯ । श꣡च्या꣢꣯ । ध꣡म꣢꣯न्तम् । अ꣡प꣢꣯ । स्नी꣡हि꣢꣯तिम् । नृ꣣म꣡णाः꣢ । नृ꣣ । म꣡नाः꣢꣯ । अ꣣धत् । राः꣢ ॥३२३॥
स्वर रहित मन्त्र
अव द्रप्सो अꣳशुमतीमतिष्ठदीयानः कृष्णो दशभिः सहस्रैः । आवत्तमिन्द्रः शच्या धमन्तमप स्नीहितिं नृमणा अधद्राः ॥३२३॥
स्वर रहित पद पाठ
अव । द्रप्सः । अऽशुमतीम् । अतिष्ठत् । ईयानः । कृष्णः । दशभिः । सहस्रैः । आवत् । तम् । इन्द्रः । शच्या । धमन्तम् । अप । स्नीहितिम् । नृमणाः । नृ । मनाः । अधत् । राः ॥३२३॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 323
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 4; मन्त्र » 1
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 10;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 4; मन्त्र » 1
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 10;
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पदार्थ -
(द्रप्सः-कृष्णः) अल्प—अणुपरिमाण वाला—अणु जीवात्मा “स्तोको वै द्रप्सः” [गो॰ २.२.१२] पापभावना वाला हुआ “एतद्वै पाप्मनो रूपं यत् कृष्णम्” [मै॰ २.५.६] (ईयानः) गति करता हुआ (दशभिः सहस्रैः) दस सहस्र नाडीतन्तुओं से युक्त (अंशुमतीम्) प्राणों वाली नगरी—देहपुरी को “प्राणाः वा अंशवः” [मै॰ ४.५.५] (अवातिष्ठत्) अवस्थित हुआ—प्राप्त हुआ (तं धमन्तम्) उस अर्चना करते हुए को—परमात्मा की स्तुति करते हुए को “धमति-अर्चतिकर्मा” [निघं॰ २.१४] (नृमणाः-इन्द्रःशच्या-आवत्) नरों मुमुक्षुजनों में मन—कल्याण चिन्तना वाला “नरो वै देवविशः” [जै॰ १.८९] ऐश्वर्यवान् परमात्मा प्रज्ञान से उसको सुरक्षित करता है—(अध) अनन्तर इसकी (स्नीहितिम्) वध करने वाली पाप वासना को “स्नेहति वधकर्मा” [निघं॰ २.१९] ततः क्तिन् प्रत्ययः। (अधद्राः) पृथक् भगाता है—दूर करता “द्राति गतिकर्मा” [निघं॰ २.१४] या रोन्धता है, नष्ट करता है।
भावार्थ - अणु—जीवात्मा पापाचरणवश हो सहस्रों नाड़ी तन्तुओं से युक्त प्राणों वाली देहपुरी को भटकता हुआ प्राप्त होता है देह धारण करता रहता है, जब यह परमात्मा की स्तुति करता है तो परमात्मा ज्ञान देकर इसकी रक्षा करता है और इसकी हानिकारक पापवासना को भी भगा देता है या नष्ट कर देता है, कारण कि वह उपासक मुमुक्षुजनों में कल्याण भावना रखने वाला है॥१॥
विशेष - ऋषिः—द्युतानः (परमात्मप्रकाश का अपने अन्दर विस्तार करने वाला उपासक)॥ छन्दः—त्रिष्टुम्॥<br>
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