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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 355
ऋषिः - प्रगाथः काण्वः देवता - इन्द्रः छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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स꣢ पू꣣र्व्यो꣢ म꣣हो꣡नां꣢ वे꣣नः꣡ क्रतु꣢꣯भिरानजे । य꣢स्य꣣ द्वा꣢रा꣣ म꣡नुः꣢ पि꣣ता꣢ दे꣣वे꣢षु꣣ धि꣡य꣢ आन꣣जे꣢ ॥३५५॥

स्वर सहित पद पाठ

सः꣢ । पू꣣र्व्यः꣢ । म꣣हो꣡ना꣢म् । वे꣣नः꣢ । क्र꣡तु꣢꣯भिः । आ꣣नजे । य꣡स्य꣢꣯ । द्वा꣡रा꣢꣯ । म꣡नुः꣢꣯ । पि꣣ता꣢ । दे꣣वे꣡षु꣢ । धि꣡यः꣢꣯ । आ꣣नजे꣢ ॥३५५॥


स्वर रहित मन्त्र

स पूर्व्यो महोनां वेनः क्रतुभिरानजे । यस्य द्वारा मनुः पिता देवेषु धिय आनजे ॥३५५॥


स्वर रहित पद पाठ

सः । पूर्व्यः । महोनाम् । वेनः । क्रतुभिः । आनजे । यस्य । द्वारा । मनुः । पिता । देवेषु । धियः । आनजे ॥३५५॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 355
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 2; मन्त्र » 4
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 1;
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पदार्थ -
(सः) वह (महोनां पूर्व्यः) प्रशंसनीयों में सर्वश्रेष्ठ (वेनः) कमनीयों—प्रियों—कमनीय कान्त प्रियों में श्रेष्ठ इन्द्र—परमात्मा (क्रतुभिः) अपने विविध प्रज्ञानों—अध्यात्म लक्षणों से “क्रतु प्रज्ञानाम” [निघं॰ ३.९] हमारे अन्दर व्यक्त साक्षात् होता है “अञ्जू व्यक्तिम्रक्ष्णकान्तिगतिषु” [रुधादि॰] परन्तु कब (यस्य द्वारा) जिसके द्वारा जहाँ से साक्षात् होता है वे हैं (मनुः) आयु “आयुर्वै मनुः” [कौ॰ २६.१७] (पिता) प्राण “प्राणो वै पिता” [ऐ॰ २.३८] (धियः) प्रज्ञान—मन बुद्धि चित्त अहङ्कार (देवेषु) परमात्मा देव में “बहुवचनमादरार्थं यद्वा” उसके दिव्य गुणों में (आनजे) ‘एकवचनं व्यत्ययेन’ लग जावें।

भावार्थ - समस्त पूज्यों में सर्वपूज्य, प्रशंसनीय, कमनीयों में कमनीय, प्रियों में श्रेष्ठ, कमनीयकान्त परमात्मा उपासक के अन्दर अपने प्रज्ञानों को प्रदर्शित करता हुआ साक्षात् होता है, परन्तु कब जब कि उपासक की आयु अर्थात् परम लक्ष्य परमात्मा की प्राप्ति के लिये हो तथा प्राण भी उसके लिये चलें, जीने मात्र के लिये न चलें, उपासक के मन, बुद्धि, चित्त, अहङ्कार भी उस परमात्मदेव में लगे रहें उसका मनन, विवेचन, स्मरण, ममत्व परमात्मा के प्रति होता रहे तो निःसन्देह ये सब उसके साक्षात् के द्वार बनकर उसे साक्षात् करा देंगे॥४॥

विशेष - ऋषिः—प्रगाथः (प्रकृष्ट गाथा—वाणी—स्तुति वाला)॥<br>

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