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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 356
ऋषिः - श्यावाश्व आत्रेयः
देवता - मरुतः
छन्दः - अनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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य꣢दी꣣ व꣡ह꣢न्त्या꣣श꣢वो꣣ भ्रा꣡ज꣢माना꣣ र꣢थे꣣ष्वा꣢ । पि꣡ब꣢न्तो मदि꣣रं꣢꣫ मधु꣣ त꣢त्र꣣ श्र꣡वा꣢ꣳसि कृण्वते ॥३५६
स्वर सहित पद पाठय꣡दि꣢꣯ । व꣡ह꣢꣯न्ति । आ꣣श꣡वः꣢ । भ्रा꣡ज꣢꣯मानाः । र꣡थे꣢꣯षु । आ । पि꣡ब꣢꣯न्तः । म꣣दिर꣢म् । म꣡धु꣢꣯ । त꣡त्र꣢꣯ । श्र꣡वाँ꣢꣯सि । कृ꣣ण्वते ॥३५६॥
स्वर रहित मन्त्र
यदी वहन्त्याशवो भ्राजमाना रथेष्वा । पिबन्तो मदिरं मधु तत्र श्रवाꣳसि कृण्वते ॥३५६
स्वर रहित पद पाठ
यदि । वहन्ति । आशवः । भ्राजमानाः । रथेषु । आ । पिबन्तः । मदिरम् । मधु । तत्र । श्रवाँसि । कृण्वते ॥३५६॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 356
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 2; मन्त्र » 5
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 1;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 2; मन्त्र » 5
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 1;
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पदार्थ -
(यदि) ‘यद्-ङि’ ‘छान्दसप्रयोगः सप्तम्याम्’ जिस समय (रथेषु) गन्ध आदि रमणीय भोगों में (भ्राजमानाः) प्रकाशमान “भ्राजृ दीप्तौ” [भ्वादि॰] (आशवः) मरुत—भोग—वासना को मारने वाले त्रिलोकी में व्यापने वाले परमात्मधर्म “वायुर्वाऽआशुस्त्रिवृत् स एषु त्रिषु लोकेषु वर्तते” [श॰ ८.४.१.९] (आवहन्ति) हमें ले जाते हैं (तत्र) उस समय (मदिरं मधु पिबन्तः) हर्षकारक मधु—मीठे उपासनारस का पान—स्वीकार करते हुए (श्रवांसि कृण्वते) उन गन्धादि भोगों को प्रशस्त—श्रेष्ठ भोगधन कर देते हैं “श्रवः-इच्छमानः प्रशंसामिच्छमानः” [निरु॰ ९.१०]॥
भावार्थ - गन्ध आदि रमणीय भोगों को भोगते हुए परमात्मा के व्यापन धर्म उपासक के उपासनारस से युक्त हुए हों तो वे उन भोगों में प्रशस्त सुख करने वाले हो जाते हैं, अतः संसार में उपासकों को केवल भोग की दृष्टि से नहीं किन्तु उनमें परमात्मा के व्यापन कला धर्मों को अनुभव करना चाहिए॥५॥
टिप्पणी -
[*28. “श्यैङ् गतौ” [भ्वादि॰]।]
विशेष - ऋषिः—श्यावाश्वः (प्रगतिशील इन्द्रिय घोड़ों वाला संयमी जन*28)॥<br>
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