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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 404
ऋषिः - सौभरि: काण्व: देवता - मरुतः छन्दः - ककुप् स्वरः - ऋषभः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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गा꣡व꣢श्चिद्घा समन्यवः सजा꣣꣬त्ये꣢꣯न म꣣रु꣢तः꣣ स꣡ब꣢न्धवः । रि꣣ह꣡ते꣢ क꣣कु꣡भो꣢ मि꣣थः꣢ ॥४०४॥

स्वर सहित पद पाठ

गा꣡वः꣢꣯ । चि꣣त् । घ । समन्यवः । स । मन्यवः । सजात्ये꣢꣯न । स꣣ । जात्ये꣢꣯न । म꣣रु꣡तः꣢ । स꣡ब꣢꣯न्धवः । स । ब꣣न्धवः । रिह꣡ते꣢ । क꣣कु꣡भः꣢ । मि꣣थः꣢ ॥४०४॥


स्वर रहित मन्त्र

गावश्चिद्घा समन्यवः सजात्येन मरुतः सबन्धवः । रिहते ककुभो मिथः ॥४०४॥


स्वर रहित पद पाठ

गावः । चित् । घ । समन्यवः । स । मन्यवः । सजात्येन । स । जात्येन । मरुतः । सबन्धवः । स । बन्धवः । रिहते । ककुभः । मिथः ॥४०४॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 404
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 2; मन्त्र » 6
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 6;
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पदार्थ -
(मरुतः) परमात्मज्योतिप्रवाह को (गावः-चित्) स्तुति वाणियाँ सारी (समन्यवः) समान आकांक्षा वाली (सबन्धवः) समान एक परमात्मा की ओर (सजात्येन) समान गुणत्व से (ककुभः-मिथः-रिहते) दिशाएँ जैसे परस्पर एक दूसरे को मानो सङ्गत होती हैं।

भावार्थ - परमात्मा को या परमात्मा की ज्ञान ज्योतियों को चाहती हुई स्तुति—वाणियाँ समान गुण वाली होकर समान परमात्मा को या उसकी ज्योतियों को केन्द्र मानकर गति करती हुई परस्पर दिशाओं के समान समागम करने वाली होनी चाहिएँ॥६॥

विशेष - ऋषिः—सौभरिः (परमात्मस्वरूप को अपने अन्दर भली-भाँति भरण धारण करने से सम्पन्न)॥ <br>देवता—मरुतः ‘इन्द्रसम्बद्धाः’ (परमात्मा से सम्बन्ध रखने वाली पापवासनाओं को मारने वाली ज्ञान ज्योति प्रवाह)॥

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