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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 42
ऋषिः - भर्गः प्रागाथः
देवता - अग्निः
छन्दः - बृहती
स्वरः - मध्यमः
काण्ड नाम - आग्नेयं काण्डम्
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त्व꣢꣯मित्स꣣प्र꣡था꣢ अ꣣स्य꣡ग्ने꣢ त्रातरृ꣣तः꣢ क꣣विः꣢ । त्वां꣡ विप्रा꣢꣯सः समिधान दीदिव꣣ आ꣡ वि꣢वासन्ति वे꣣ध꣡सः꣢ ॥४२॥
स्वर सहित पद पाठत्व꣢म् । इत् । स꣣प्र꣡थाः꣢ । स꣣ । प्र꣡थाः꣢꣯ । अ꣣सि । अ꣡ग्ने꣢꣯ । त्रा꣣तः । ऋतः꣢ । क꣣विः꣢ । त्वाम् । वि꣡प्रा꣢꣯सः । वि । प्रा꣣सः । समिधान । सम् । इधान । दीदिवः । आ꣢ । वि꣣वासन्ति । वेध꣡सः꣢ ॥४२॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वमित्सप्रथा अस्यग्ने त्रातरृतः कविः । त्वां विप्रासः समिधान दीदिव आ विवासन्ति वेधसः ॥४२॥
स्वर रहित पद पाठ
त्वम् । इत् । सप्रथाः । स । प्रथाः । असि । अग्ने । त्रातः । ऋतः । कविः । त्वाम् । विप्रासः । वि । प्रासः । समिधान । सम् । इधान । दीदिवः । आ । विवासन्ति । वेधसः ॥४२॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 42
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 4; मन्त्र » 8
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 4;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 4; मन्त्र » 8
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 4;
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पदार्थ -
(त्रातः समिधान दीदिवः-अग्ने) हे त्राणकर्ता, अपने गुण प्रदान कर चमकाने वाले “समिन्धयमानः-अन्तर्गतणिजर्थः” स्वयं देदीप्यमान परमात्मन्! (त्वम्-इत्) तू ही (सप्रथाः-ऋतः कविः-असि) सर्वतः पृथु-सर्वत्र-व्याप्त एवं प्रसिद्ध “सप्रथाः सर्वतः पृथु॰...” [निरु॰ ६.७] सत्यव्रती “ऋतवान्-अकारो मत्वर्थीयः” सर्वज्ञ है (त्वां वेधसः-विप्रासः-आविवासन्ति) तुझे वेधन करने वाले—लक्ष्य बनाने वाले “प्रणवो धनुः शरो ह्यात्मा ब्रह्म तल्लक्ष्यमुच्यते” [मुण्ड॰ २.२.४] मेधावी विद्वान् भली प्रकार अपने अन्दर स्तुति द्वारा सेवन करते हैं।
भावार्थ - परमात्मन्! तू ही त्राणकर्ता सर्वत्र प्रसिद्ध प्रकाशक, प्रकाशमान सर्वज्ञ देव है तथा सत्यवान् सृष्टि की उत्पत्ति स्थिति धृति में स्थिरधर्मी जीवों के कर्मफलों के देने में सत्यव्रती है, अतएव तुझ से प्रार्थना की परम्परा है “असतो मा सद्गमय तमसो मा ज्योतिर्गमय मृत्योर्मा अमृतं गमय” [श॰ १४.२.१.३०] असत्—पाप से सत् पुण्य की ओर लेजा, अन्धकार से ज्योति की ओर लेजा, मृत्यु से अमृत की ओर लेजा। मेधावी लक्ष्यवेधी तेरा वेधन करते हैं ओ३म् नाम को धनुष अपने आत्मा को शर और तुझ ब्रह्म को लक्ष्य बनाकर वेधन करते हैं तेरा आनन्दरस चुवाने के लिये। सो मैं उपासक भी उनमें से एक हूँ॥८॥
विशेष - ऋषिः—विरूपः (परमात्मा को विविध निरूपित करने वाला उपासक)॥<br>
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