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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 430
ऋषिः - ऋण0त्रसदस्यू देवता - पवमानः सोमः छन्दः - द्विपदा विराट् पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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प꣡व꣢स्व सोम म꣣हे꣢꣫ दक्षा꣣या꣢श्वो꣣ न꣢ नि꣣क्तो꣢ वा꣣जी꣡ धना꣢य ॥४३०॥

स्वर सहित पद पाठ

प꣡व꣢꣯स्व । सो꣣म । महे꣢ । द꣡क्षा꣢꣯य । अ꣡श्वः꣢꣯ । न । नि꣣क्तः꣢ । वा꣣जी꣢ । ध꣡ना꣢꣯य ॥४३०॥


स्वर रहित मन्त्र

पवस्व सोम महे दक्षायाश्वो न निक्तो वाजी धनाय ॥४३०॥


स्वर रहित पद पाठ

पवस्व । सोम । महे । दक्षाय । अश्वः । न । निक्तः । वाजी । धनाय ॥४३०॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 430
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 5; मन्त्र » 4
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 9;
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पदार्थ -
(सोम) हे मेरे उपासनारस! तू (महे दक्षाय पवस्व) महान् बल—आत्मबल के लिये चालू हो—प्रवाहित रह (अश्वः-न) जैसे घोड़ा (निक्तः-वाजी) स्वरूप में सधा हुआ बलवान् हुआ (धनाय) धनप्राप्ति के लिए होता है इसी भांति अमृत धन प्राप्ति के लिए सोम—उपासनारस हो।

भावार्थ - उपासनारस सधे हुए घोड़े के समान बलवान् हो, प्रवाहित रहे, अमृत धन प्राप्त करने के लिए॥४॥

विशेष - ऋषिः—ऋणत्रसदस्यू ऋषी (ऋणत्रास को क्षीण करने वाले जप और स्वाध्यायकर्ता)॥ देवता—पवमानः सोमः (आनन्दप्रद उपासनारस)॥ छन्दः—द्विपदा पंक्तिः॥<br>

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