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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 47
ऋषिः - सौभरि: काण्व: देवता - अग्निः छन्दः - बृहती स्वरः - मध्यमः काण्ड नाम - आग्नेयं काण्डम्
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अ꣡द꣢र्शि गातु꣣वि꣡त्त꣢मो꣣ य꣡स्मि꣢न्व्र꣣ता꣡न्या꣢द꣣धुः꣢ । उ꣢पो꣣ षु꣢ जा꣣त꣡मार्य꣢꣯स्य व꣡र्ध꣢नम꣣ग्निं꣡ न꣢क्षन्तु नो꣣ गि꣡रः꣢ ॥४७॥

स्वर सहित पद पाठ

अ꣡द꣢꣯र्शि । गा꣣तुवि꣡त्त꣢मः । गा꣣तु । वि꣡त्त꣢꣯मः । य꣡स्मि꣢꣯न् । व्र꣣ता꣡नि꣢ । आ꣣दधुः꣢ । आ꣣ । दधुः꣢ । उ꣡प꣢꣯ । उ꣣ । सु꣢ । जा꣣त꣢म् । आ꣡र्य꣢꣯स्य । व꣡र्ध꣢꣯नम् । अ꣣ग्नि꣢म् । न꣣क्षन्तु । नः । गि꣡रः꣢꣯ ॥४७॥


स्वर रहित मन्त्र

अदर्शि गातुवित्तमो यस्मिन्व्रतान्यादधुः । उपो षु जातमार्यस्य वर्धनमग्निं नक्षन्तु नो गिरः ॥४७॥


स्वर रहित पद पाठ

अदर्शि । गातुवित्तमः । गातु । वित्तमः । यस्मिन् । व्रतानि । आदधुः । आ । दधुः । उप । उ । सु । जातम् । आर्यस्य । वर्धनम् । अग्निम् । नक्षन्तु । नः । गिरः ॥४७॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 47
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 5; मन्त्र » 3
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 5;
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पदार्थ -
(यस्मिन् व्रतानि-आदधुः) जिसकी प्राप्ति के निमित्त व्रतों-ब्रह्मचर्य अहिंसा सत्य आदि को समन्त-रूप से धारण करते हैं “यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति” [कठो॰ १.१.१५] (गातुवित्तमः-अदर्शि) हमारी विधि का भली-भाँति ज्ञाता “गातुः-गमनम्” [निरु॰ ४.२२] दृष्ट होता है—साक्षात् हो जाता है (आर्यस्य वर्धनं सुजातम्-अग्निम्) उपासक या श्रेष्ठ गुण के वर्धक सम्यक् साक्षात् परमात्मा को (नः-गिरः) हमारी स्तुतियाँ (उपनक्षन्तु-उ) निरन्तर प्राप्त होती रहें “नक्षति गतिकर्मा” [निघं॰ २.१४]।

भावार्थ - जो परमात्मा हमारी गतिविधियों को जानता है जिसकी प्राप्ति के निमित्त ब्रह्मचर्य आदि व्रत धारण करते हैं उसका आत्मा में साक्षात्कार हो जाता है, उसे हमारी स्तुतियाँ निरन्तर प्राप्त होती रहें जिससे कि वह मुझ उपासक एवं श्रेष्ठगुण को बढ़ाता रहे॥३॥

विशेष - ऋषिः—सौभरिः (परमात्मा के गुणों को अपने अन्दर भरने में कुशल)॥<br>

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