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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 470
ऋषिः - अहमीयुराङ्गिरसः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम - पावमानं काण्डम्
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य꣢स्ते꣣ म꣢दो꣣ व꣡रे꣢ण्य꣣स्ते꣡ना꣢ पव꣣स्वा꣡न्ध꣢सा । दे꣣वावी꣡र꣢घशꣳस꣣हा꣢ ॥४७०॥
स्वर सहित पद पाठयः꣢ । ते꣣ । म꣡दः꣢꣯ । व꣡रे꣢꣯ण्यः । ते꣡न꣢꣯ । प꣣वस्व । अ꣡न्ध꣢꣯सा । दे꣣वावीः꣢ । दे꣣व । अवीः꣢ । अ꣣घशँसहा꣢ । अ꣢घशँस । हा꣢ ॥४७०॥
स्वर रहित मन्त्र
यस्ते मदो वरेण्यस्तेना पवस्वान्धसा । देवावीरघशꣳसहा ॥४७०॥
स्वर रहित पद पाठ
यः । ते । मदः । वरेण्यः । तेन । पवस्व । अन्धसा । देवावीः । देव । अवीः । अघशँसहा । अघशँस । हा ॥४७०॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 470
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 4; मन्त्र » 4
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 1;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 4; मन्त्र » 4
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 1;
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पदार्थ -
(ते) हे सोम—शान्तस्वरूप परमात्मन्! तेरा (यः-वरेण्यः-मदः) जो हर्ष—आनन्दोल्लास वरणीय—धारण करने योग्य (देवावीः) देवधर्मों का रक्षक है और (अघशंसहा) पाप प्रशंसक विचारों का नाशक है (तेन-अन्धसा) उस आध्यानीय—चिन्तनीय—पुनः पुनः निदिध्यासन में लाने योग्य के द्वारा (पवस्व) हमारे हृदय में प्रवाहित हो—प्राप्त हो।
भावार्थ - हे शान्तस्वरूप परमात्मन्! तेरे सङ्ग से जो वरणीय हर्षोल्लास प्राप्त हो वह देवधर्मों दिव्यगुणों का रक्षक वर्धक है तथा पाप प्रशंसक विचारों का नाशक है, उस ऐसे तुझको पुनः पुनः ध्यान में लावें॥४॥
विशेष - ऋषिः—अमहीयुः (पृथिवी का नहीं अपितु अमृतरूप मोक्षधाम का चाहने वाला उपासक)॥<br>
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