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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 50
ऋषिः - प्रस्कण्वः काण्वः देवता - अग्निः छन्दः - बृहती स्वरः - मध्यमः काण्ड नाम - आग्नेयं काण्डम्
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श्रु꣣धि꣡ श्रु꣢त्कर्ण꣣ व꣡ह्नि꣢भिर्दे꣣वै꣡र꣢ग्ने स꣣या꣡व꣢भिः । आ꣡ सी꣢दतु ब꣣र्हि꣡षि꣢ मि꣣त्रो꣡ अ꣢र्य꣣मा꣡ प्रा꣢त꣣र्या꣡व꣢भिरध्व꣣रे꣢ ॥५०॥

स्वर सहित पद पाठ

श्रु꣣धि꣢ । श्रु꣣त्कर्ण । श्रुत् । कर्ण । व꣡ह्नि꣢꣯भिः । दे꣣वैः꣢ । अ꣣ग्ने । सया꣡व꣢भिः । स꣣ । या꣡व꣢꣯भिः । आ । सी꣣दतु । बर्हि꣡षि꣢ । मि꣣त्रः꣢ । मि꣣ । त्रः꣢। अ꣣र्यमा꣢ । प्रा꣣तः । या꣡व꣢꣯भिः । अ꣣ध्वरे꣢ ॥५०॥


स्वर रहित मन्त्र

श्रुधि श्रुत्कर्ण वह्निभिर्देवैरग्ने सयावभिः । आ सीदतु बर्हिषि मित्रो अर्यमा प्रातर्यावभिरध्वरे ॥५०॥


स्वर रहित पद पाठ

श्रुधि । श्रुत्कर्ण । श्रुत् । कर्ण । वह्निभिः । देवैः । अग्ने । सयावभिः । स । यावभिः । आ । सीदतु । बर्हिषि । मित्रः । मि । त्रः। अर्यमा । प्रातः । यावभिः । अध्वरे ॥५०॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 50
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 5; मन्त्र » 6
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 5;
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पदार्थ -
(श्रुत्कर्ण-अग्ने) हे श्रवणसमर्थ कर्णशक्तिवाले—श्रवणार्थ शक्तिरूप कर्ण वाले परमात्मन्! तू (श्रुधि) मेरी प्रार्थना को सुन स्वीकार कर, वह यह कि (अध्वरे बर्हिषि) अध्यात्म यज्ञ में हृदयाकाश में (सयावभिः-वह्निभिः-देवैः) साथ गमन करने वाले, साथ प्राप्त होने वाले निजस्वरूप वाहक दिव्यगुणों के साथ तू ‘आसीद-इत्याकांक्षा’ आ विराज। तथा (मित्रः-आसीदतु) आप वायुरूप होकर “अयं वै वायुर्मित्रोऽयं पवते” [श॰ ६.५.४.१४] विराजें (प्रातर्यावभिः-अर्यमा ‘आसीदतु’) आप अपने से प्रथम आने वाले—प्राप्त होने वाले गुणों के साथ सूर्यरूप में “अर्यमा-आदित्यः” [निरु॰ ११.१३] आ विराजें।

भावार्थ - परमात्मा स्तुति आमन्त्रण को सुनने में स्वीकार करने में पूर्ण समर्थ और स्वतन्त्र है वह उपासक के हृदय में आता है अग्निरूप में ज्वालाओं के समान वाहक गुणों के साथ, वायुरूप में प्रवाहों के समान प्रेरक गुणों के साथ और सूर्यरूप में प्रातः रश्मियों के समान ज्ञानप्रकाशक गुणों के साथ, वह तेज, बल और ज्ञान का दाता है॥६॥

विशेष - ऋषिः—प्रस्कण्वः (प्रकृष्ट मेधावी उपासक)॥<br>

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