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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 51
ऋषिः - सौभरि: काण्व:
देवता - अग्निः
छन्दः - बृहती
स्वरः - मध्यमः
काण्ड नाम - आग्नेयं काण्डम्
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प्र꣡ दैवो꣢꣯दासो अ꣣ग्नि꣢र्दे꣣व꣢꣫ इन्द्रो꣣ न꣢ म꣣ज्म꣡ना꣢ । अ꣡नु꣢ मा꣣त꣡रं꣢ पृथि꣣वीं꣡ वि वा꣢꣯वृते त꣣स्थौ꣡ नाक꣢꣯स्य꣣ श꣡र्म꣢णि ॥५१॥
स्वर सहित पद पाठप्र꣢ । दै꣡वो꣢꣯दासः । दै꣡वः꣢꣯ । दा꣣सः । अग्निः꣢ । दे꣣वः꣢ । इ꣡न्द्रः꣢꣯ । न । म꣣ज्म꣡ना꣢ । अ꣡नु꣢꣯ । मा꣣त꣡र꣢म् । पृ꣣थिवी꣢म् । वि । वा꣣वृते । तस्थौ꣢ । ना꣡क꣢꣯स्य । श꣡र्म꣢꣯णि ॥५१॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र दैवोदासो अग्निर्देव इन्द्रो न मज्मना । अनु मातरं पृथिवीं वि वावृते तस्थौ नाकस्य शर्मणि ॥५१॥
स्वर रहित पद पाठ
प्र । दैवोदासः । दैवः । दासः । अग्निः । देवः । इन्द्रः । न । मज्मना । अनु । मातरम् । पृथिवीम् । वि । वावृते । तस्थौ । नाकस्य । शर्मणि ॥५१॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 51
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 5; मन्त्र » 7
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 5;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 5; मन्त्र » 7
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 5;
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पदार्थ -
(दैवोदासः-अग्निः-देवः) द्युलोक के दर्शक सूर्य में वर्तमान “दिवोदासः-षष्ठीविभक्तेरलुक् समासे, दासो दर्शकः सूर्यः” दस दर्शने (चुरादि॰) तत्र वर्तमानः-दैवोदासः परमात्मा देव “योऽसावादित्ये पुरुषः सोऽसावहम्। ओ३म्, खं ब्रह्म” [यजु॰ ४०.१७] (नाकस्य शर्मणि तस्थौ) आनन्द के घर मोक्षधाम “शर्म गृहनाम” [निघं॰ ३.४] में स्थिर हुआ (मातरं पृथिवीं प्रवावृते-अनु ‘अनु वावृते’ ‘विवावृते’) समस्त वस्तुओं की निर्मात्री प्रथित जगती सृष्टि “जगती हीयं पृथिवी” [श॰ २.२.१.२०] “जगत्यां जगत्” [यजु॰ ४०.१] के प्रति पुनः पुनः प्रवृत्त होता है—उत्पन्न करता है, पुनः पुनः अनुवृत्त होता अनुशासित करता है—धारण करता है, पुनः पुनः विवृत्त होता है—उससे विगत होता है—उसका संहार करता है, यह ऐसा है (इन्द्रः-नः मज्मना) जैसे राजा शासन बल से “मज्मना बलनाम” [निघं॰ २.९] राष्ट्र को बनाता-बढ़ाता है, उसका रक्षण करता है, उससे निवृत्त भी हो जाता है। वह ऐसा परमात्मा मोक्ष से पूर्व मेरे हृदय में प्राप्त हो।
भावार्थ - सूर्य के प्रकाश और ताप का प्रभाव बड़ा भारी है, परन्तु इस में प्रकाश और ताप देने वाला इसके अन्दर वर्तमान व्यापक ओ३म् ब्रह्म परमात्मा है वही मुक्तों को मोक्षरूप आनन्द भवन में बसाता है और वही इस विस्तृत सृष्टि को उत्पन्न करता है धारण करता और अन्त में इसका प्रलय करता है, उसे हृदय में धारण करना चाहिए॥७॥
विशेष - ऋषिः—सौभरिः (परमात्मगुणों को अपने अन्दर धारण करने में कुशल उपासक)॥<br>
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