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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 523
ऋषिः - उशना काव्यः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
काण्ड नाम - पावमानं काण्डम्
4
प्र꣡ तु द्र꣢꣯व꣣ प꣢रि꣣ को꣢शं꣣ नि꣡ षी꣢द꣣ नृ꣡भिः꣢ पुना꣣नो꣢ अ꣣भि꣡ वाज꣢꣯मर्ष । अ꣢श्वं꣣ न꣡ त्वा꣢ वा꣣जि꣡नं꣢ म꣣र्ज꣢य꣣न्तो꣡ऽच्छा꣣ ब꣣र्ही꣡ र꣢श꣣ना꣡भि꣢र्नयन्ति ॥५२३॥
स्वर सहित पद पाठप्र꣢ । तु । द्र꣣व । प꣡रि꣢꣯ । को꣡श꣢꣯म् । नि । सी꣣द । नृ꣡भिः꣢꣯ । पु꣣नानः꣢ । अ꣣भि꣢ । वा꣡ज꣢꣯म् । अ꣣र्ष । अ꣡श्व꣢꣯म् । न । त्वा꣣ । वाजि꣡न꣢म् । म꣣र्ज꣡य꣢न्तः । अ꣡च्छ꣢꣯ । ब꣣र्हिः꣢ । र꣣शना꣡भिः꣢ । न꣣यन्ति ॥५२३॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र तु द्रव परि कोशं नि षीद नृभिः पुनानो अभि वाजमर्ष । अश्वं न त्वा वाजिनं मर्जयन्तोऽच्छा बर्ही रशनाभिर्नयन्ति ॥५२३॥
स्वर रहित पद पाठ
प्र । तु । द्रव । परि । कोशम् । नि । सीद । नृभिः । पुनानः । अभि । वाजम् । अर्ष । अश्वम् । न । त्वा । वाजिनम् । मर्जयन्तः । अच्छ । बर्हिः । रशनाभिः । नयन्ति ॥५२३॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 523
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 4; मन्त्र » 1
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 6;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 4; मन्त्र » 1
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 6;
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पदार्थ -
(तु) हे सोम—शान्तस्वरूप परमात्मन्! अवश्य “तु अवधारणे” (अव्ययार्थ-निबन्धनम्) (प्रद्रव) मेरी ओर आनन्दधारा में प्रद्रवित हो—बहता हुआ आ (कोशं परिनिषीद) मेरे अन्तःकोष्ठरूप हृदय में परिपूर्ण होकर विराजमान हो जा—बैठ जा (नृभिः पुनानः) मुमुक्षुजनों द्वारा “नरो ह वै देवविशः” [जै॰ १.८९] ध्यान द्वारा प्राप्त करने योग्य होता हुआ ‘कर्मणि कर्तृप्रत्ययश्छान्दसः’ (वाजम्-अभ्यर्ष) अमृत अन्न—अमृत भोग को “अमृतोऽन्नं वै वाजः” [जै॰ २.१९३] प्रेरित कर (वाजिनम्-अश्वं त्वा मर्जयन्तः) अति बलवान् घोड़े के समान तुझको स्तुतियों से अपनी ओर प्रेरित करते हुए “मर्जयन्त गमयन्त” [निरु॰ १२.४३] (रशनाभिः) तेरी व्याप्त आनन्दधाराओं से “अशेरश च युच्” [उणा॰ २.७६] या अपनी व्यापने वाली उपासन क्रियारूप अङ्गुलियों अङ्गुलि सङ्केतों से “रशनाः-अङ्गुलिनाम” [निघं॰ २.५] या उपासना शक्तियों से “ऊर्ग् वै रशना” [तै॰ ६.६.४.५] (बर्हिः-अच्छ नयन्ति) हृदयाकाश की ओर “बर्हिः-अन्तरिक्षम्” [निघं॰ १.३] लेते हैं।
भावार्थ - हाँ, अवश्य हे शान्तस्वरूप परमात्मन्! मेरी ओर आनन्दधारारूप में प्रद्रवित हो, वह मेरे हृदयकोश में परिनिष्ठित हो उसे परिपूर्ण कर विराज, मुमुक्षुजनों द्वारा प्राप्त होने वाला तू अमृत भोग को प्रेरित कर अतिबलवान् घोड़े के समान तुझको स्तुतियों से अपनी ओर प्रेरित करते हुए तेरी व्याप्त धाराओं से या उपासन क्रियारूप अङ्गुलियों अङ्गुलि सङ्केतों से या उपासनाशक्तियों से हृदय आकाश की ओर लेते हैं॥१॥
विशेष - ऋषिः—उशनाः (मुक्ति पाने की कामना करने वाला)॥ छन्दः—त्रिष्टुप्॥<br>
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