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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 56
ऋषिः - कण्वो घौरः देवता - ब्रह्मणस्पतिः छन्दः - बृहती स्वरः - मध्यमः काण्ड नाम - आग्नेयं काण्डम्
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प्रै꣢तु꣣ ब्र꣡ह्म꣢ण꣣स्प꣢तिः꣣ प्र꣢ दे꣣꣬व्ये꣢꣯तु सू꣣नृ꣡ता꣢ । अ꣡च्छा꣢ वी꣣रं꣡ न꣢꣯र्यं प꣣ङ्क्ति꣡रा꣢धसं दे꣣वा꣢ य꣣ज्ञं꣡ न꣢यन्तु नः ॥५६॥

स्वर सहित पद पाठ

प्र꣢ । ए꣣तु । ब्रह्म꣢꣯णः प꣡तिः꣢꣯ । प्र । दे꣣वी꣢ । ए꣣तु । सूनृ꣡ता꣢ । सु꣣ । नृ꣡ता꣢꣯ । अ꣡च्छ꣢꣯ । वी꣣र꣢म् । न꣡र्य꣢꣯म् । प꣣ङ्क्ति꣡रा꣢धसम् । प꣣ङ्क्ति꣢म् । रा꣣धसम् । देवाः꣢ । य꣣ज्ञ꣢म् । न꣣यन्तु । नः ॥५६॥


स्वर रहित मन्त्र

प्रैतु ब्रह्मणस्पतिः प्र देव्येतु सूनृता । अच्छा वीरं नर्यं पङ्क्तिराधसं देवा यज्ञं नयन्तु नः ॥५६॥


स्वर रहित पद पाठ

प्र । एतु । ब्रह्मणः पतिः । प्र । देवी । एतु । सूनृता । सु । नृता । अच्छ । वीरम् । नर्यम् । पङ्क्तिराधसम् । पङ्क्तिम् । राधसम् । देवाः । यज्ञम् । नयन्तु । नः ॥५६॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 56
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 1; मन्त्र » 2
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 6;
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पदार्थ -
(ब्रह्मणस्पतिः प्रैतु) वेदज्ञान एवं ब्रह्माण्ड का स्वामी परमात्मा मुझे अध्यात्म यज्ञ में प्रेरित करे—आगे बढ़ावे (सूनृता देवी प्र-एतु ‘प्रैतु’) दिव्या मन्त्रस्तुति भी मुझे अध्यात्म यज्ञ में प्रेरित करे (देवाः) मेरे प्राण “प्राणा वै देवाः” [श॰ ८.२.२.८] (नः) हमारे (वीरं नर्यम्) प्रगति देने वाले मानवहितकर (पंक्तिराधसम्) पाँच वाक् श्रोत्र नेत्र मन आत्मा के समर्पण द्वारा सिद्ध हुए (यज्ञम्) अध्यात्म यज्ञ को (अच्छ नयन्तु) व्याप्तरूप में निर्बाध आगे आगे जीवन में चलावें बढ़ावें।

भावार्थ - अध्यात्मयज्ञ मानव का कल्याणसाधक है जिसे चलाने वाले प्राण हैं। ये बलिष्ठ होने चाहिएँ निर्बलप्राणों वाला मनुष्य स्वास्थ्यरूप भौतिक अमृत को नहीं पा सकता तब आध्यात्मिक अमृत का आस्वादन तो दूर ही रहेगा। अध्यात्मयज्ञ में मानव का सर्वाङ्गसमर्पण आवश्यक है, वाणी, कान, आँख, मन और आत्मा इन पाँचों को हुत हो जाना—लग जाना चाहिये। वाणी से स्तवन कीर्तन करना, श्रोत्र से गुणश्रवण करना, आँख से संसार में उसकी कला परखना, मन से मनन, और आत्मा से उसका भावन-अनुभव करना। साथ में विश्वात्मा ज्ञानदाता की दया उसमें पूर्ण श्रद्धा अपितु उसकी मन्त्रगत स्तुति भी प्रमुख साधन है॥२॥

विशेष - ऋषिः—कण्वः (मेधावी वक्ता प्रगतिशील उपासक)॥ देवता—ब्रह्मणस्पतिः (वेद एवं ब्रह्माण्ड का स्वामी परमात्मा)॥<br>

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