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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 6
ऋषिः - सुदीतिपुरुमीढावाङ्गिरसौ तयोर्वान्यतरः
देवता - अग्निः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम - आग्नेयं काण्डम्
7
त्वं꣡ नो꣢ अग्ने꣣ म꣡हो꣢भिः पा꣣हि꣡ विश्व꣢꣯स्या꣣ अ꣡रा꣢तेः । उ꣣त꣢ द्वि꣣षो꣡ मर्त्य꣢꣯स्य ॥६॥
स्वर सहित पद पाठत्व꣢म् । नः꣢ । अग्ने । म꣡हो꣢꣯भिः । पा꣣हि꣢ । वि꣡श्व꣢꣯स्य । अ꣡रा꣢꣯तेः । अ । रा꣣तेः । उत꣢ । द्वि꣣षः꣢ । म꣡र्त्य꣢꣯स्य ॥६॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वं नो अग्ने महोभिः पाहि विश्वस्या अरातेः । उत द्विषो मर्त्यस्य ॥६॥
स्वर रहित पद पाठ
त्वम् । नः । अग्ने । महोभिः । पाहि । विश्वस्य । अरातेः । अ । रातेः । उत । द्विषः । मर्त्यस्य ॥६॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 6
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 1; मन्त्र » 6
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 1;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 1; मन्त्र » 6
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 1;
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पदार्थ -
(अग्ने) हे प्रकाशस्वरूप परमात्मन्! (त्वम्) तू (मर्त्यस्य) मरणधर्मी—सांसारिक साधारणजन के अन्दर होने वाली (विश्वस्याः) सारी—(अरातेः) न देने वाली—कृपणता अपि तु अपहरण प्रवृत्ति से (उत) और (द्विषः) द्वेष भावना से (महोभिः) अपने महत्त्वों—ज्ञान बलों के द्वारा (नः पाहि) हमारी रक्षा कर।
भावार्थ - साधारण संसारीजन के अन्दर अनेक विध अदान भावना अर्थात् अपने पास आवश्यकता से अधिक होने पर भी अन्य अधिकारी के हित में अपना धन अन्न विद्या को न देने की भावना अपितु अन्य से अपहरण की प्रवृत्ति तथा इसी भांति विविध द्वेष भावना अर्थात् अन्य से अल्प अपकार हो जाने पर अपितु स्वाभीष्ट की प्राप्ति न होने पर उसके प्रति क्रोध पीड़ा पहुँचाने की भावना उत्पन्न हो जाती है। ये दूसरे को तो हानि पहुँचाती है, या नहीं, पर ऐसी भावनाएँ रखने वाले को तो अवश्य ही हानि पहुँचाती हैं उसका अन्तःकरण मलिन और आत्मा अशान्त हो जाती है परमात्मा के सत्सङ्ग का मिलना तो कहाँ? अतः परमात्मन्! मुझ उपासक को इनसे बचाए रखना, यह मेरे अन्दर न उठने पावें॥६॥
टिप्पणी -
[*4. “सुदीतिरादित्यान् जिन्व” (काठ॰ १७.७)।]
विशेष - ऋषिः—सुदीतिपुरुमीढावृषी (स्तुति का सुदान कर्ता स्तुति का बहुत सींचने वाला उपासक*4)॥<br>
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