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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 655
ऋषिः - कश्यपो मारीचः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
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हि꣣न्वानो꣢ हे꣣तृ꣡भि꣢र्हि꣣त꣡ आ वाजं꣢꣯ वा꣣꣬ज्य꣢꣯क्रमीत् । सी꣡द꣢न्तो व꣣नु꣡षो꣢ यथा ॥६५५॥

स्वर सहित पद पाठ

हि꣣न्वानः꣢ । हे꣣तृ꣡भिः꣢ । हि꣣तः꣢ । आ । वा꣡जम्꣢꣯ । वा꣣जी꣢ । अ꣣क्रमीत् । सी꣡द꣢꣯न्तः । व꣣नु꣡षः꣢ । य꣣था ॥६५५॥


स्वर रहित मन्त्र

हिन्वानो हेतृभिर्हित आ वाजं वाज्यक्रमीत् । सीदन्तो वनुषो यथा ॥६५५॥


स्वर रहित पद पाठ

हिन्वानः । हेतृभिः । हितः । आ । वाजम् । वाजी । अक्रमीत् । सीदन्तः । वनुषः । यथा ॥६५५॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 655
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 2; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 1; सूक्त » 2; मन्त्र » 2
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पदार्थ -
(वाजी) अमृत अन्नभोग वाला सोम शान्त परमात्मा “अमृतोऽन्नं वै वाजः” [जै॰ २.१९३] तद्वान् (हेतृभिः-हितः) स्तुति प्रेरक उपासकों द्वारा धारित उपासित हुआ (वाजं हिन्वानः-अक्रमीत्) अमृतान्नभोग को प्रेरित करता हुआ उपासक के अन्दर प्राप्त होता है (यथा वनुषः सीदन्तः) जैसे चाहने वाले हितैषी अपने शिष्यों को गुरुजन प्राप्त होते हुए उपदेश देते हैं।

भावार्थ - स्तुतिकर्ता उपासकों द्वारा धारा हुआ उपासित किया हुआ अमृतभोग वाला परमात्मा अमृतभोग को प्रेरित करता हुआ उपासक को ऐसे प्राप्त होता है जैसे गुरुजन शिष्यों को प्राप्त होते हुए उपदेश देते हैं॥२॥

विशेष - <br>

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