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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 660
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः देवता - अग्निः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
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अ꣢ग्न꣣ आ꣡ या꣢हि वी꣣त꣡ये꣢ गृणा꣣नो꣢ ह꣣व्य꣡दा꣢तये । नि꣡ होता꣢꣯ सत्सि ब꣣र्हि꣡षि꣢ ॥६६०॥

स्वर सहित पद पाठ

अ꣡ग्ने꣢꣯ । आ । या꣣हि । वीत꣡ये꣢ । गृ꣣णानः꣢ । ह꣣व्य꣡दा꣢तये । ह꣣व्य꣢ । दा꣣तये । नि꣢ । हो꣡ता꣢꣯ । स꣣त्सि । बर्हि꣡षि꣢ ॥६६०॥


स्वर रहित मन्त्र

अग्न आ याहि वीतये गृणानो हव्यदातये । नि होता सत्सि बर्हिषि ॥६६०॥


स्वर रहित पद पाठ

अग्ने । आ । याहि । वीतये । गृणानः । हव्यदातये । हव्य । दातये । नि । होता । सत्सि । बर्हिषि ॥६६०॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 660
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 4; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 2; सूक्त » 1; मन्त्र » 1
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पदार्थ -
(अग्ने) हे ज्ञानप्रकाशस्वरूप परमात्मन्! तू (हव्यदातये गृणानः) हमें अपनी भेंट देने के लिए हमारे द्वारा स्तुत किया जाता हुआ प्रतीकाररूप में (वीतये आ याहि) अपनी प्राप्ति के लिए आ जा (होता बर्हिषि नि सत्सि) तू हृदयासन पर होता की भाँति नितरां प्राप्त हो—निरन्तर रमण कर।

भावार्थ - परमात्मा के प्रति स्वात्मसमर्पण करने से परमात्मा की स्तुति की जाती है तो वह अपने साक्षात् दर्शन के लिए आता है और हृदय में विराजमान हो जाता है जैसे होता यज्ञासन पर बैठ जाता है॥१॥

विशेष - ऋषिः—भरद्वाजो बार्हस्पत्यः (स्तुतिवाणी में कुशल अमृतभोग धारण करनेवाला उपासक)॥ देवता—अग्निः (ज्ञानप्रकाशस्वरूप परमात्मा)॥ छन्दः—गायत्री॥<br>

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