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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 707
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - अग्निः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
3
न꣡ हि ते꣢꣯ पू꣣र्त꣡म꣢क्षि꣣प꣡द्भुव꣢꣯न्नेमानां पते । अ꣢था꣣ दु꣡वो꣢ वनवसे ॥७०७॥
स्वर सहित पद पाठन꣢ । हि । ते꣣ । पूर्त꣢म् । अ꣣क्षिप꣢त् । अ꣣क्षि । प꣢त् । भु꣡व꣢꣯त् । ने꣣मानाम् । पते । अ꣡थ꣢꣯ । दु꣡वः꣢꣯ । व꣣नवसे ॥७०७॥
स्वर रहित मन्त्र
न हि ते पूर्तमक्षिपद्भुवन्नेमानां पते । अथा दुवो वनवसे ॥७०७॥
स्वर रहित पद पाठ
न । हि । ते । पूर्तम् । अक्षिपत् । अक्षि । पत् । भुवत् । नेमानाम् । पते । अथ । दुवः । वनवसे ॥७०७॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 707
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 21; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 6; सूक्त » 2; मन्त्र » 3
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 21; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 6; सूक्त » 2; मन्त्र » 3
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पदार्थ -
(नेमानां पते) हे नमने वाले उपासकों के रक्षक परमात्मन्! (ते-अक्षिपत् पूर्त्तं न हि भुवत्) उनके लिए तेरा इन्द्रिय-शक्तियों का गिराने वाला उन्हें समाप्त करने वाला तेज या ताप प्राप्त नहीं होता है (अथ दुवः-वनवसे) और तू उनके सेवा उपासना को स्वीकार करता है ‘वनवसे’ द्विविकरणप्रयोगश्छान्दसः।
भावार्थ - उपासकों का पालन करने वाला परमात्मा है उनकी इन्द्रिय-शक्तियों को परमात्मा तेज ताप नहीं देता भौतिक अग्नि की भाँति तथा वह उनकी उपासना को स्वीकार करता है॥३॥
विशेष - <br>
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