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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 706
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - अग्निः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
6
य꣢त्र꣣꣬ क्व꣢꣯ च ते꣣ म꣢नो꣣ द꣡क्षं꣢ दधस꣣ उ꣡त्त꣢रम् । त꣢त्र꣣ यो꣡निं꣢ कृणवसे ॥७०६॥
स्वर सहित पद पाठय꣡त्र꣢꣯ । क्व꣢ । च꣣ । ते । म꣡नः꣢꣯ । द꣡क्ष꣢꣯म् । द꣣धसे । उ꣡त्त꣢꣯रम् । त꣡त्र꣢꣯ । यो꣡नि꣢꣯म् । कृ꣣णवसे ॥७०६॥
स्वर रहित मन्त्र
यत्र क्व च ते मनो दक्षं दधस उत्तरम् । तत्र योनिं कृणवसे ॥७०६॥
स्वर रहित पद पाठ
यत्र । क्व । च । ते । मनः । दक्षम् । दधसे । उत्तरम् । तत्र । योनिम् । कृणवसे ॥७०६॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 706
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 21; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 6; सूक्त » 2; मन्त्र » 2
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 21; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 6; सूक्त » 2; मन्त्र » 2
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पदार्थ -
(यत्र क्व च) जिस भी उपासक में (ते) तेरे लिए (मनः) मनोभाव—मनन—आस्तिकता है वहाँ तू (उत्तरं दक्षं दधसे) अपना उत्तम वरने योग्य स्वरूप धारण करता है—स्थापित करता है और (तत्र) वहाँ (योनिं कृणवसे) अपना निवास स्थान बनाता है।
भावार्थ - परमात्मन्! जिस उपासक के अन्दर तेरे प्रति मनोभाव आस्तिकता है वहाँ तू अपना दर्शन-ज्ञान कराता है और वहाँ अपना निवास बनाता है॥२॥
विशेष - <br>
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