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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 78
ऋषिः - वसिष्ठो मैत्रावरुणिः
देवता - अग्निः
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
काण्ड नाम - आग्नेयं काण्डम्
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प्र꣢ स꣣म्रा꣢ज꣣म꣡सु꣢रस्य प्रश꣣स्तं꣢ पु꣣ꣳसः꣡ कृ꣢ष्टी꣣ना꣡म꣢नु꣣मा꣡द्य꣢स्य । इ꣡न्द्र꣢स्येव꣣ प्र꣢ त꣣व꣡स꣢स्कृ꣣ता꣡नि꣢ व꣣न्द꣡द्वा꣢रा꣣ व꣡न्द꣢माना विवष्टु ॥७८॥
स्वर सहित पद पाठप्र꣢ । स꣣म्रा꣡ज꣢म् । स꣣म् । रा꣡ज꣢꣯म् । अ꣡सु꣢꣯रस्य । अ । सु꣣रस्य । प्रशस्त꣢म् । प्र꣣ । शस्त꣢म् । पुँ꣣सः꣢ । कृ꣣ष्टीना꣢म् । अ꣣नुमा꣡द्य꣢स्य । अ꣣नु । मा꣡द्य꣢꣯स्य । इ꣡न्द्र꣢꣯स्य । इ꣣व । प्र꣢ । त꣣व꣡सः꣢ । कृ꣣ता꣡नि꣢ । व꣣न्द꣡द्वा꣢रा । व꣡न्द꣢꣯माना । वि꣣वष्टु ॥७८॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र सम्राजमसुरस्य प्रशस्तं पुꣳसः कृष्टीनामनुमाद्यस्य । इन्द्रस्येव प्र तवसस्कृतानि वन्दद्वारा वन्दमाना विवष्टु ॥७८॥
स्वर रहित पद पाठ
प्र । सम्राजम् । सम् । राजम् । असुरस्य । अ । सुरस्य । प्रशस्तम् । प्र । शस्तम् । पुँसः । कृष्टीनाम् । अनुमाद्यस्य । अनु । माद्यस्य । इन्द्रस्य । इव । प्र । तवसः । कृतानि । वन्दद्वारा । वन्दमाना । विवष्टु ॥७८॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 78
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 3; मन्त्र » 6
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 8;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 3; मन्त्र » 6
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 8;
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पदार्थ -
(कृष्टीनाम्) मनुष्यों के “कृष्टयः-मनुष्याः” [निघं॰ २.३] (अनुमाद्यस्य-असुरस्य) यथार्थ वन्दनीय प्राणप्रद तथा प्रज्ञाप्रद “प्राणो वा असुः” [श॰ ६.६.२.६] “असुः प्रज्ञानाम” [निघं॰ ३.९] (पुंसः) पौरुषयुक्त—सृष्टिरचन-समर्थ तथा कर्मफल प्रदानसमर्थ परमात्मा के (प्रशस्तं सम्राजम्) प्रसिद्ध सम्यक्-राजमान स्वामित्व को (प्र) ‘प्रस्तुत’—प्रकृष्टरूप से बखानकर—ध्यान में ला (तवसः- इन्द्रस्य-इव कृतानि) बलवान् सूर्य के समान कर्म—विश्वसञ्चालन और ज्ञान प्रदान हैं उन्हें भी (प्र) बखान कर (वन्दद्वारा) वे कर्म वन्दना के द्वार हैं (वन्दमाना विवष्टु) वन्दन वचनों—स्तुतिवचनों को वह चाहे-स्वीकार करे—करता है।
भावार्थ - मनुष्यों का स्तुतिपात्र परमात्मा है वह प्राण और प्रज्ञा का दाता है, सृष्टिरचना में और मनुष्य के कर्मफल देने में पूर्ण समर्थ है, सूर्य की भाँति उसके प्रताप और प्रकाश कार्य विश्व में हो रहे हैं जो वन्दना के सूचक हैं वह हमारे द्वारा की गई स्तुतियों को स्वीकार कर हम पर कृपा करता है॥६॥
विशेष - ऋषिः—वसिष्ठः (परमात्मा में अत्यन्त वसने वाला)॥<br>
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