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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 80
ऋषिः - पायुर्भारद्वाजः देवता - अग्निः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः काण्ड नाम - आग्नेयं काण्डम्
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स꣣ना꣡द꣢ग्ने मृणसि यातु꣣धा꣢ना꣣न्न꣢ त्वा꣣ र꣡क्षा꣢ꣳसि꣣ पृ꣡त꣢नासु जिग्युः । अ꣡नु꣢ दह स꣣ह꣡मू꣢रान्क꣣या꣢दो꣣ मा꣡ ते꣢ हे꣣त्या꣡ मु꣢क्षत꣣ दै꣡व्या꣢याः ॥८०॥

स्वर सहित पद पाठ

स꣣ना꣢त् । अ꣣ग्ने । मृणसि । यातुधा꣡ना꣢न् । या꣣तु । धा꣡ना꣢꣯न् । न । त्वा꣣ । र꣡क्षाँ꣢꣯सि । पृ꣡त꣢꣯नासु । जि꣣ग्युः । अ꣡नु꣢꣯ । द꣣ह । सह꣡मू꣢रान् । स꣣ह꣢ । मू꣣रान् । क꣣या꣡दः꣢ । क꣣य । अ꣡दः꣢꣯ । मा । ते꣣ । हेत्याः꣢ । मु꣣क्षत । दै꣡व्या꣢꣯याः ॥८०॥


स्वर रहित मन्त्र

सनादग्ने मृणसि यातुधानान्न त्वा रक्षाꣳसि पृतनासु जिग्युः । अनु दह सहमूरान्कयादो मा ते हेत्या मुक्षत दैव्यायाः ॥८०॥


स्वर रहित पद पाठ

सनात् । अग्ने । मृणसि । यातुधानान् । यातु । धानान् । न । त्वा । रक्षाँसि । पृतनासु । जिग्युः । अनु । दह । सहमूरान् । सह । मूरान् । कयादः । कय । अदः । मा । ते । हेत्याः । मुक्षत । दैव्यायाः ॥८०॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 80
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 3; मन्त्र » 8
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 8;
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पदार्थ -
(अग्ने) हे शोधक अज्ञानान्धकारनाशक परमात्मन्! तू (यातुधानान्) अपने तथा अन्यों के प्रति यातना धारण करने वालों पीड़ा पहुँचाने वाले पापविचारों तथा पापीजनों को (सनात्-मृणसि) नित्य या सर्वदा “सनात् नित्ये—सर्वदा वा” [अव्ययार्थनिबन्धनम्] हिंसित करता है नष्ट करता है (त्वा रक्षांसि पृतनासु न जिग्युः) तुझे राक्षस—जिनसे रक्षा करनी चाहिए ऐसे पापविचार और पापीजन संघर्ष संग्रामों में “पृतनाः संग्राम नाम” [निघं॰ २.१७] जीत नहीं सकते हैं—तेरे दण्डविधान का उलङ्घन नहीं कर सकते हैं (मूरान् कयादः-सह-अनुदह) मूढ—अज्ञानपरायण तथा शरीरस्थ मांस खाने वालों का एकसाथ भस्म कर दे—कर देता है—तुच्छ असमर्थ कर देता है “लडर्थे लोट्” (दैव्यायाः-हेत्याः) तेरी दैवी—तीक्ष्ण हेति वज्रशक्ति से “हेतिः-वज्रनाम” [निघं॰ २.२०] (ते मा मुुक्षत) वे न छूट सकें—नहीं छूट सकते।

भावार्थ - परमात्मा सदा से या नित्य मनुष्यों के पीडक विचारों—पाप भावों एवं पापियों को नष्ट करता है, पाप और पापी उसके सम्मुख तुच्छ हैं उन ऐसे शरीर का मांस सुखाने तथा खाने वाले पाप-विचारों और पापियों को एक साथ भस्म करने तुच्छ करने में समर्थ है उसके दिव्य वज्र से कोई पाप और पापी बच नहीं सकता, उसका चिन्तनबल पाप को भगाने वाला उसका आश्रय पापियों से रक्षा करता है॥८॥

विशेष - ऋषिः पायुः (दोषनिवारण गुणधारण अपनी रक्षा करने वाला उपासक)॥<br>

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