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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 848
ऋषिः - मधुच्छन्दा वैश्वामित्रः देवता - मित्रावरुणौ छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
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ऋ꣣ते꣡न꣢ मित्रावरुणावृतावृधावृतस्पृशा । क्र꣡तुं꣢ बृ꣣ह꣡न्त꣢माशाथे ॥८४८॥

स्वर सहित पद पाठ

ऋ꣣ते꣡न꣢ । मि꣣त्रा । मि । त्रा । वरुणौ । ऋतावृधौ । ऋत । वृधौ । ऋतस्पृशा । ऋत । स्पृशा । क्र꣡तु꣢꣯म् । बृ꣣ह꣡न्त꣢म् । आ꣣शाथेइ꣡ति꣢ ॥८४८॥


स्वर रहित मन्त्र

ऋतेन मित्रावरुणावृतावृधावृतस्पृशा । क्रतुं बृहन्तमाशाथे ॥८४८॥


स्वर रहित पद पाठ

ऋतेन । मित्रा । मि । त्रा । वरुणौ । ऋतावृधौ । ऋत । वृधौ । ऋतस्पृशा । ऋत । स्पृशा । क्रतुम् । बृहन्तम् । आशाथेइति ॥८४८॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 848
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 6; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 2; सूक्त » 2; मन्त्र » 2
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पदार्थ -
(ऋतावृधा) सत्य—सत्याचरणकर्ता के वर्धक (ऋतस्पृशा) सत्य—सत्याचरणकर्ता के स्पर्शी—सङ्गतिकर्ता (मित्रावरुणौ) प्रेरक और वरने—अङ्गीकार करने वाला परमात्मा (बृहन्तं क्रतुम्) महान् ज्ञानयज्ञ को या अध्यात्मयज्ञ को (ऋतेन-आशाथे) अपने अमृतस्वरूप से प्राप्त होते हैं “ऋतममृतमित्याह” [जै॰ २.१६०]।

भावार्थ - सत्याचरणकर्ता—सत्यमानी सत्यवादी सत्यकारी का वर्धक तथा सत्यमानी सत्यवादी सत्यकारी का स्पर्शकर्ता सङ्गी प्रेरक और अङ्गीकार करने वाला परमात्मा महान् अध्यात्मयज्ञ को अपने अमृतस्वरूप से प्राप्त होता है॥२॥

विशेष - <br>

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