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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 85
ऋषिः - द्वितो मृक्तवाहा आत्रेयः देवता - अग्निः छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः काण्ड नाम - आग्नेयं काण्डम्
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प्रा꣣त꣢र꣣ग्निः꣡ पु꣢रुप्रि꣣यो꣢ वि꣣श꣡ स्त꣢वे꣣ता꣡ति꣢थिः । वि꣢श्वे꣣ य꣢स्मि꣣न्न꣡म꣢र्त्ये ह꣣व्यं꣡ मर्ता꣢꣯स इ꣣न्ध꣡ते꣢ ॥८५॥

स्वर सहित पद पाठ

प्रा꣣तः꣢ । अ꣣ग्निः꣢ । पु꣣रुप्रियः꣢ । पु꣣रु । प्रियः꣢ । वि꣣शः꣢ । स्त꣣वेत । अ꣡ति꣢꣯थिः । वि꣡श्वे꣢꣯ । य꣡स्मि꣢꣯न् । अ꣡म꣢꣯र्त्ये । अ । म꣣र्त्ये । ह꣣व्य꣢म् । म꣡र्ता꣢꣯सः । इ꣣न्ध꣡ते꣢ ॥८५॥


स्वर रहित मन्त्र

प्रातरग्निः पुरुप्रियो विश स्तवेतातिथिः । विश्वे यस्मिन्नमर्त्ये हव्यं मर्तास इन्धते ॥८५॥


स्वर रहित पद पाठ

प्रातः । अग्निः । पुरुप्रियः । पुरु । प्रियः । विशः । स्तवेत । अतिथिः । विश्वे । यस्मिन् । अमर्त्ये । अ । मर्त्ये । हव्यम् । मर्तासः । इन्धते ॥८५॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 85
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 4; मन्त्र » 5
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 9;
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पदार्थ -
(पुरुप्रियः) बहुत प्रकार से प्रिय “पुरु बहुनाम” [निघं॰ ३.१] (अतिथिः) मेरे हृदयगृह में प्राप्त होने वाला (अग्निः) अग्रणेता परमात्मा! (प्रातः) प्रातःकाल—सर्व कार्य से प्रथम (विशः स्तवेत) मनुष्य प्रजाओं द्वारा “विशो मनुष्याः” [निघं॰ २.३] “तृतीयार्थे प्रथमा” स्तवन में लाया जाए—उपासित किया जावे (यस्मिन्-अमर्त्ये) जिस अमरदेव के आश्रय में (विश्वे मर्तासः) सब मरणधर्मा—जन्ममरण में आने वाले मनुष्य (हव्यम्-इन्धते) अपने मन को शुद्धरूप में प्रकाशित करते हैं।

भावार्थ - परमात्मा समस्त प्रिय वस्तुओं से भी अत्यधिक प्रिय है, उस हृदयसदन के अतिथि सत्करणीय परमात्मा की मनुष्य सर्वप्रथम स्तुति करें, उस के आश्रय में अपने मन को पवित्ररूप में प्रकाशित करें॥५॥

विशेष - ऋषिः—द्वितो मृक्तवाहाः (दोनों प्रकार से शरीर और आत्मा को पवित्र एवं अलङ्कृत कर आगे वहन करने वाला)॥<br>

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