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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 84
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः देवता - अग्निः छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः काण्ड नाम - आग्नेयं काण्डम्
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त्व꣡ꣳहि क्षैत꣢꣯व꣣द्य꣡शोऽग्ने꣢꣯ मि꣣त्रो꣡ न पत्य꣢꣯से । त्वं꣡ वि꣢चर्षणे꣣ श्र꣢वो꣣ व꣡सो꣢ पु꣣ष्टिं꣡ न पु꣢꣯ष्यसि ॥८४॥

स्वर सहित पद पाठ

त्व꣢म् । हि । क्षै꣡त꣢꣯वत् । य꣡शः꣢꣯ । अ꣡ग्ने꣢꣯ । मि꣣त्रः꣢ । मि꣣ । त्रः꣢ । न । प꣡त्य꣢꣯से । त्वम् । वि꣣चर्षणे । वि । चर्षणे । श्र꣡वः꣢꣯ । व꣡सो꣢꣯ । पु꣣ष्टि꣢म् । न । पु꣣ष्यसि ॥८४॥


स्वर रहित मन्त्र

त्वꣳहि क्षैतवद्यशोऽग्ने मित्रो न पत्यसे । त्वं विचर्षणे श्रवो वसो पुष्टिं न पुष्यसि ॥८४॥


स्वर रहित पद पाठ

त्वम् । हि । क्षैतवत् । यशः । अग्ने । मित्रः । मि । त्रः । न । पत्यसे । त्वम् । विचर्षणे । वि । चर्षणे । श्रवः । वसो । पुष्टिम् । न । पुष्यसि ॥८४॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 84
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 4; मन्त्र » 4
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 9;
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पदार्थ -
(अग्ने) हे प्रकाशमान परमात्मन्! (त्वं हि) तू ही (क्षैतवत्-यशः) क्षिति पृथिवी का—पार्थिव देह, “क्षितिः पृथिवीनाम” [निघं॰ १.१] पार्थिव देहवाले उदक—जीवनरस पर “यशः-उदकनाम” [निघं॰ १.१२] (पत्यसे) स्वामित्व करता है “पत्यते-ऐश्वर्यकर्मा” [निघं॰ २.२१] (मित्रः-न) प्राण के समान “प्राणो वै मित्रः” [श॰ ६.५.१.५] प्राण जैसे शरीरस्थ जीवनरस पर स्वामित्व करता है (विचर्षणे वसो) हे सर्वद्रष्टा वसाने वाले परमात्मन् (त्वम्) तू (श्रवः पुष्टिं न पुष्यसि) मेरे आत्मयश को भी “श्रव इच्छमानः प्रशंसामिच्छमानः” [निरु॰ ११.९] पुष्टि के समान—जीवनरस की पुष्टि के समान पुष्ट करता है—उन्नत करता है।

भावार्थ - हे परमात्मन्! तू अपनी महती कृपा से मुझ उपासक के जीवनरस को प्राण के समान उसे प्रवृद्ध करने वाला है और मेरे आत्मयश को भी पुष्ट-प्रवृद्ध करके अपने आश्रय में वसाने वाला है, मैं किस भावना से तेरी शरण में आने को उत्सुक हूँ यह तू जानता है। अतः मुझे अपनी शरण दे॥४॥

विशेष - ऋषिः—भरद्वाजः (परमात्मा के अर्चन ज्ञान बल को धारण करने वाला उपासक)॥<br>

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