अथर्ववेद - काण्ड 15/ सूक्त 17/ मन्त्र 7
सूक्त - अध्यात्म अथवा व्रात्य
देवता - आसुरी अनुष्टुप्
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
तस्य॒व्रात्य॑स्य।योऽस्य॑ सप्त॒मो व्या॒नः स सं॑वत्स॒रः ॥
स्वर सहित पद पाठतस्य॑ । व्रात्य॑स्य । य: । अ॒स्य॒ । स॒प्त॒म: । वि॒ऽआ॒न: । स: । स॒म्ऽव॒त्स॒र: ॥१७.७॥
स्वर रहित मन्त्र
तस्यव्रात्यस्य।योऽस्य सप्तमो व्यानः स संवत्सरः ॥
स्वर रहित पद पाठतस्य । व्रात्यस्य । य: । अस्य । सप्तम: । विऽआन: । स: । सम्ऽवत्सर: ॥१७.७॥
अथर्ववेद - काण्ड » 15; सूक्त » 17; मन्त्र » 7
विषय - व्रात्य के सामर्थ्य का उपदेश।
पदार्थ -
(तस्य) उस (व्रात्यस्य) व्रात्य [सत्यव्रतधारी अतिथि] का−(यः) जो (अस्य) इस [व्रात्य] का (सप्तमः) सातवाँ (व्यानः) व्यान [सब शरीर में फैला हुआ वायु] है, (सः) वह (संवत्सरः) संवत्सर है [अर्थात् वर्ष में ऋतु महीने आदि कैसे बनते हैं और सबमनुष्य आदि प्राणी कैसे उसका उपभोग करते हैं, इस का वह ज्ञान कराता है] ॥७॥
भावार्थ - सत्यव्रतधारी महात्माअतिथि संन्यासी अपने प्रत्येक व्यान वायु की चेष्टा में संसार का उपकार करताहै, जैसे वह प्रथम व्यान में भूमिविद्या, दूसरे में अन्तरिक्षविद्या, तीसरे मेंसूर्यविद्या वा आकाशविद्या, चौथे में नक्षत्रविद्या, पाँचवें में वसन्त आदिऋतुविद्या, छठे में ऋतुओं में उत्पन्न पुष्प फल आदि पदार्थविद्या और सातवें मेंसंवत्सर अर्थात् काल की उपभोगविद्या का उपदेश करता है ॥१-७॥
टिप्पणी -
७−(संवत्सरः)संपूर्वाच्चित्। उ० ३।७२। सम्+वस निवासे सरन्, स च चित्। संवसन्ति वसन्तादयोयत्र। कालोपभोगविद्या। अन्यत् पूर्ववत् स्पष्टं च ॥