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  • अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 2/ मन्त्र 17
    सूक्त - यम, मन्त्रोक्त देवता - अनुष्टुप् छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - पितृमेध सूक्त

    ये युध्य॑न्तेप्र॒धने॑षु॒ शूरा॑सो॒ ये तनू॒त्यजः॑। ये वा॑ स॒हस्र॑दक्षिणा॒स्तांश्चि॑दे॒वापि॑ गच्छतात् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ये । युध्य॑न्ते । प्र॒ऽधने॑षु । धूरा॑स: । ये । त॒नू॒ऽत्यज॑: । ये । वा॒ । स॒हस्र॑ऽदक्षिणा: । तान् । चि॒त् । ए॒व । अपि॑ । ग॒च्छ॒ता॒त् ॥२.१७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ये युध्यन्तेप्रधनेषु शूरासो ये तनूत्यजः। ये वा सहस्रदक्षिणास्तांश्चिदेवापि गच्छतात् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ये । युध्यन्ते । प्रऽधनेषु । धूरास: । ये । तनूऽत्यज: । ये । वा । सहस्रऽदक्षिणा: । तान् । चित् । एव । अपि । गच्छतात् ॥२.१७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 2; मन्त्र » 17

    पदार्थ -
    (ये) जो [वीर] (प्रधनेषु) संग्रामों में (युध्यन्ते) युद्ध करते हैं, और (ये) जो (शूरासः) शूर (तनूत्यजः) शरीर का बलिदान करनेवाले [वा उपकार का दान करनेवाले] हैं। (वा) और (ये) जो (सहस्रदक्षिणाः) सहस्रों प्रकार की दक्षिणा देनेवाले हैं, (तान्) उन [महात्माओं] को (चित्) सत्कार से (एव) ही (अपि) अवश्य (गच्छतात्) तू प्राप्त हो॥१७॥

    भावार्थ - जैसे शूरवीर पुरुषधर्मयुद्ध में अपने को बलिदान करके संसार में शान्ति स्थापित करते हैं, वैसे हीमनुष्यों को दुष्कर्मियों के दण्ड देने में सदा उद्यत रहना चाहिये ॥१७॥

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