अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 49/ मन्त्र 4
सूक्त - गोपथः, भरद्वाजः
देवता - रात्रिः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - रात्रि सूक्त
सिं॒हस्य॒ रात्र्यु॑श॒ती पीं॒षस्य॑ व्या॒घ्रस्य॑ द्वी॒पिनो॒ वर्च॒ आ द॑दे। अश्व॑स्य ब्र॒ध्नं पुरु॑षस्य मा॒युं पु॒रु रू॒पाणि॑ कृणुषे विभा॒ती ॥
स्वर सहित पद पाठसिं॒हस्य॑। रात्री॑। उ॒श॒ती। पीं॒षस्य॑। व्या॒घ्रस्य॑। द्वी॒पिनः॑। वर्चः॑। आ। द॒दे॒। अश्व॑स्य। ब्र॒ध्नम्। पुरु॑षस्य। मा॒युम्। पु॒रु। रू॒पाणि॑। कृ॒णु॒षे॒। वि॒ऽभा॒ती ॥४९.४॥
स्वर रहित मन्त्र
सिंहस्य रात्र्युशती पींषस्य व्याघ्रस्य द्वीपिनो वर्च आ ददे। अश्वस्य ब्रध्नं पुरुषस्य मायुं पुरु रूपाणि कृणुषे विभाती ॥
स्वर रहित पद पाठसिंहस्य। रात्री। उशती। पींषस्य। व्याघ्रस्य। द्वीपिनः। वर्चः। आ। ददे। अश्वस्य। ब्रध्नम्। पुरुषस्य। मायुम्। पुरु। रूपाणि। कृणुषे। विऽभाती ॥४९.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 49; मन्त्र » 4
विषय - रात्रि में रक्षा का उपदेश।
पदार्थ -
(उशती) प्रीति करती हुई (रात्री) रात्री ने (सिंहस्य) सिंह की, (पींषस्य) चूरण करनेवाले [हाथी] की, (व्याघ्रस्य) बाघ की और (द्वीपिनः) चीते की (वर्चः) कान्ति को, (अश्वस्य) घोड़े के (ब्रध्नम्) मूल [वेग] को और (पुरुषस्य) पुरुष की (मायुम्) ललकार को (आ ददे) ग्रहण किया है, (विभाती) चमकती हुई तू (पुरु) बहुत से (रूपाणि) रूपों को (कृणुषे) बनाती है ॥४॥
भावार्थ - जो मनुष्य रात्रिरूप कठिनाई में सिंह आदि के समान पराक्रमी होते हैं, वे ही कीर्तिमान् और तेजस्वी होते हैं ॥४॥
टिप्पणी -
४−(सिंहस्य) (रात्री) (उशती) कामयमाना (पींषस्य) पाघ्राघ्माधेट्दृशः शः। पा० ३।१।१३७। इति बाहुलकात् शप्रत्ययः। तस्य सार्वधातुकत्वाद् नुम्, छान्दसो दीर्घः। संचूर्णकस्य गजस्य (व्याघ्रस्य) हिंसकजीवविशेषस्य (द्वीपिनः) व्याघ्रभेदस्य (वर्चः) कान्तिम् (आददे) आहृतवती। प्राप्तवती (अश्वस्य) तुरङ्गस्य (ब्रध्नम्) मूलम्। वेगम् (पुरुषस्य) मनुष्यस्य (मायुम्) माङ् शब्दे-उण्, युक् च। शब्दम् (पुरु) पुरूणि (रूपाणि) (कृणुषे) करोषि (विभाती) वि+भा दीप्तौ-शतृ। विशेषेण भासमाना ॥