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अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 64/ मन्त्र 3
यद॑ग्ने॒ यानि॒ कानि॑ चि॒दा ते॒ दारू॑णि द॒ध्मसि॑। सर्वं॒ तद॑स्तु मे शि॒वं तज्जु॑षस्व यविष्ठ्य ॥
स्वर सहित पद पाठयत्। अ॒ग्ने॒। यानि॑। कानि॑। चि॒त्। आ। ते॒। दारू॑णि। द॒ध्मसि॑। सर्व॑म्। तत्। अ॒स्तु॒। मे॒। शि॒वम्। तत्। जु॒ष॒स्व॒। य॒वि॒ष्ठ्य॒ ॥६४.३॥
स्वर रहित मन्त्र
यदग्ने यानि कानि चिदा ते दारूणि दध्मसि। सर्वं तदस्तु मे शिवं तज्जुषस्व यविष्ठ्य ॥
स्वर रहित पद पाठयत्। अग्ने। यानि। कानि। चित्। आ। ते। दारूणि। दध्मसि। सर्वम्। तत्। अस्तु। मे। शिवम्। तत्। जुषस्व। यविष्ठ्य ॥६४.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 64; मन्त्र » 3
विषय - भौतिक अग्नि के उपयोग का उपदेश।
पदार्थ -
(अग्ने) हे अग्नि ! (यानि कानि चित्) जिन-किन ही (दारूणि) काष्ठों को (ते) तेरे लिये (यत्) जो कुछ (आ दध्मसि) हम लाकर धरते हैं। (तत् सर्वम्) वह सब (मे) मेरे लिये (शिवम्) कल्याणकारी (अस्तु) होवे, (यविष्ठ्य) हे अत्यन्त संयोजक-वियोजकों में साधु ! [योग्य] (तत्) उस [काष्ठ आदि] को (जुषस्व) तू सेवन कर ॥३॥
भावार्थ - मनुष्य काष्ठ आदि पदार्थों को अग्नि में हवन और शिल्पसिद्धि के लिये सावधानी और विचार से छोड़ें, जिससे प्रज्वलित अग्नि द्वारा यथावत् कार्यसिद्धि होवे ॥३॥
टिप्पणी -
यह मन्त्र कुछ भेद से यजुर्वेद में है-११।७३ और ऋग्वेद ८।१०२ [सायणभाष्य ९१] ॥२०॥३−(यत्) यत्-किञ्चित् (यानि कानि चित्) यानि सर्वाण्यपि (आ) आनीय (ते) तुभ्यम् (दारूणि) काष्ठानि (दध्मसि) धरामः। आरोपयामः (सर्वम्) (तत्) (अस्तु) (मे) मह्यम् (शिवम्) कल्याणकरम् (तत्) समग्रम् (जुषस्व) सेवस्व (यविष्ठ्य) युवन्-इष्ठन्। स्थूलदूरयुव०। पा० ६।४।१५६। वलोपे गुणे च। तत्र साधुः। पा० ४।४।९८। इति यविष्ठ-यत्। हे युवतमेषु अतिशयेन संयोजकवियोजकेषु साधो योग्य ॥