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अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 68/ मन्त्र 1
अव्य॑सश्च॒ व्यच॑सश्च॒ बिलं॒ वि ष्या॑मि मा॒यया॑। ताभ्या॑मु॒द्धृत्य॒ वेद॒मथ॒ कर्मा॑णि कृण्महे ॥
स्वर सहित पद पाठअव्य॑सः। च॒। व्यच॑सः। च॒। बिल॑म्। वि। स्या॒मि॒। मा॒यया॑। ताभ्या॑म्। उ॒त्ऽहृत्य॑। वेद॑म्। अथ॑। कर्मा॑णि। कृ॒ण्म॒हे॒ ॥६८.१॥
स्वर रहित मन्त्र
अव्यसश्च व्यचसश्च बिलं वि ष्यामि मायया। ताभ्यामुद्धृत्य वेदमथ कर्माणि कृण्महे ॥
स्वर रहित पद पाठअव्यसः। च। व्यचसः। च। बिलम्। वि। स्यामि। मायया। ताभ्याम्। उत्ऽहृत्य। वेदम्। अथ। कर्माणि। कृण्महे ॥६८.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 68; मन्त्र » 1
विषय - मनुष्य के कर्तव्य का उपदेश।
पदार्थ -
(अव्यसः) अव्यापक [जीवात्मा] के (च च) और (व्यचसः) व्यापक [परमात्मा] के (बिलम्) बिल [भेद] को (मायया) बुद्धि से (वि ष्यामि) मैं खोलता हूँ। (अथ) फिर (ताभ्याम्) उन दोनों के जानने के लिये (वेदम्) वेद [ऋग्वेद आदि ज्ञान] को (उद्धृत्य) ऊँचा लाकर (कर्माणि) कर्मों को (कृण्महे) हम करते हैं ॥१॥
भावार्थ - मनुष्य जीवात्मा के कर्तव्य और परमात्मा के अनुग्रह समझने के लिये वेदों को प्रधान जानकर अपना-अपना कर्तव्य करते रहें ॥१॥
टिप्पणी -
१−(अव्यसः) व्यचतिर्व्याप्तिकर्मा-असुन्,वर्णलोपश्छान्दसः। अव्यचसः। अव्यापकस्य जीवात्मनः (च) (व्यचसः) व्यापकस्य परमात्मनः (च) (बिलम्) छिद्रम्। गुप्तभेदम् (विष्यामि) स्यतिरुपसृष्टो विमोचने-निरु० १।१७। विवृणोमि। विमोचयामि (मायया) प्रज्ञया (ताभ्याम्) तौ ज्ञातुम् (उद्धृत्य) उद्गमय्य (वेदम्) ऋग्वेदादिवेदचतुष्टयं ज्ञानमूलम् (अथ) अनन्तरम् (कर्माणि) कर्तव्यानि (कृण्महे) कुर्महे ॥