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अथर्ववेद > काण्ड 3 > सूक्त 13

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  • अथर्ववेद - काण्ड 3/ सूक्त 13/ मन्त्र 7
    सूक्त - भृगुः देवता - वरुणः, सिन्धुः, आपः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - आपो देवता सूक्त

    इ॒दं व॑ आपो॒ हृद॑यम॒यं व॒त्स ऋ॑तावरीः। इ॒हेत्थमेत॑ शक्वरी॒र्यत्रे॒दं वे॒शया॑मि वः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒दम् । व॒: । आ॒प॒: । हृद॑यम् । अ॒यम् । व॒त्स: । ऋ॒त॒ऽव॒री॒: । इ॒ह । इ॒त्थम् । आ । इ॒त॒ । श॒क्व॒री॒: । यत्र॑ । इ॒दम् । वे॒शया॑मि । व॒: ॥१३.७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इदं व आपो हृदयमयं वत्स ऋतावरीः। इहेत्थमेत शक्वरीर्यत्रेदं वेशयामि वः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इदम् । व: । आप: । हृदयम् । अयम् । वत्स: । ऋतऽवरी: । इह । इत्थम् । आ । इत । शक्वरी: । यत्र । इदम् । वेशयामि । व: ॥१३.७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 13; मन्त्र » 7

    पदार्थ -
    (आपः) हे प्राप्ति के योग्य जल धाराओं ! (इदम्) यह (वः) तुम्हारा (हृदयम्) स्वीकार योग्य हृदय वा कर्म है। (ऋतावरीः) हे सत्यशील [जलधाराओं !] (अयम्) यह (वत्सः) निवास देनेवाला, आश्रय है। (शक्वरीः) हे शक्तिवालियों ! (इत्थम्) इस प्रकार से (इह) यहाँ पर (आ इत) आओ, (यत्र) जहाँ (वः) तुम्हारे (इदम्) जल को (वेशयामि) प्रवेश करूँ ॥७॥

    भावार्थ - कृषि, यन्त्र, औषधादि में जल के यथायोग्य प्रयोग से प्राणियों को सुख मिलता है ॥७॥

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