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अथर्ववेद > काण्ड 3 > सूक्त 15

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  • अथर्ववेद - काण्ड 3/ सूक्त 15/ मन्त्र 5
    सूक्त - अथर्वा देवता - देवगणः छन्दः - विराड्जगती सूक्तम् - वाणिज्य

    येन॒ धने॑न प्रप॒णं चरा॑मि॒ धने॑न देवा॒ धन॑मि॒च्छमा॑नः। तन्मे॒ भूयो॑ भवतु॒ मा कनी॒योऽग्ने॑ सात॒घ्नो दे॒वान्ह॒विषा॒ नि षे॑ध ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    येन॑ । धने॑न । प्र॒ऽप॒णम् । चरा॑मि । धने॑न । दे॒वा॒: । धन॑म् । इ॒च्छमा॑न: । तत् । मे॒ । भूय॑: । भ॒व॒तु॒ । मा । कनी॑य: । अग्ने॑ । सा॒त॒ऽघ्न: । दे॒वान् । ह॒विषा॑ । नि । से॒ध॒ । १५.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    येन धनेन प्रपणं चरामि धनेन देवा धनमिच्छमानः। तन्मे भूयो भवतु मा कनीयोऽग्ने सातघ्नो देवान्हविषा नि षेध ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    येन । धनेन । प्रऽपणम् । चरामि । धनेन । देवा: । धनम् । इच्छमान: । तत् । मे । भूय: । भवतु । मा । कनीय: । अग्ने । सातऽघ्न: । देवान् । हविषा । नि । सेध । १५.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 15; मन्त्र » 5

    पदार्थ -
    (देवाः) हे व्यवहार-कुशल व्यापारियों ! (धनेन) मूलधन से (धनम्) धन (इच्छमानः) चाहनेवाला मैं (येन धनेन) जिस धन से (प्रपणम्) व्यापार (चरामि) चलाता हूँ, (तत्) वह धन (मे) मेरेलिये (भूयः) अधिक-अधिक (भवतु) होवे, (कनीयः) थोड़ा (मा) न [होवे]। (अग्ने) हे अग्निसदृश तेजस्वी विद्वान् ! (सातघ्नः) लाभ नाश करनेवाले (देवान्) मूर्खों को (हविषा) हमारी भक्ति द्वारा (निषेध) रोक दे ॥५॥

    भावार्थ - नवशिक्षित व्यापारी बड़े-बड़े व्यापारियों से लाभ-हानि की रीतें समझकर अपने मूल धन को बढ़ाते रहें और कुव्यवहारियों के फंदे में न पड़ें ॥५॥

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