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अथर्ववेद > काण्ड 4 > सूक्त 37

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  • अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 37/ मन्त्र 2
    सूक्त - बादरायणिः देवता - अजशृङ्ग्योषधिः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - कृमिनाशक सूक्त

    त्वया॑ व॒यम॑प्स॒रसो॑ गन्ध॒र्वांश्चा॑तयामहे। अज॑शृ॒ङ्ग्यज॒ रक्षः॒ सर्वा॑न् ग॒न्धेन॑ नाशय ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वया॑ । व॒यम् । अ॒प्स॒रस॑: । ग॒न्ध॒र्वान् । चा॒त॒या॒म॒हे॒ । अज॑ऽशृ‍ङ्गि । अज॑ । रक्ष॑: । सर्वा॑न् । ग॒न्धेन॑ । ना॒श॒य॒ ॥३७.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वया वयमप्सरसो गन्धर्वांश्चातयामहे। अजशृङ्ग्यज रक्षः सर्वान् गन्धेन नाशय ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्वया । वयम् । अप्सरस: । गन्धर्वान् । चातयामहे । अजऽशृ‍ङ्गि । अज । रक्ष: । सर्वान् । गन्धेन । नाशय ॥३७.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 37; मन्त्र » 2

    पदार्थ -
    (अजशृङ्गि) हे जीवात्मा के दुःखनाशक शक्ति परमेश्वर ! (त्वया) तेरे साथ (वयम्) हम लोग (अप्सरसः) आकाश, जल, प्राण और प्रजाओं में व्यापक शक्तियों को और (गन्धर्वान्) विद्या वा पृथिवी धारण करनेवाले गुणों को (चातयामहे) माँगते हैं। (गन्धेन) अपनी व्याप्ति से (सर्वान्) सब (रक्षः) राक्षसों को (अज) हटा दे और (नाशय) नाश करदे ॥२॥

    भावार्थ - जो मनुष्य परमेश्वर पर विश्वास करके पुरुषार्थ करते हैं, वे ही संसार को सुख देते हैं। [अजशृङ्गी एक औषध भी है] ॥२॥ इन मन्त्रों के साथ अ० का० २ सू० २ का मिलान् करो ॥

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