यजुर्वेद - अध्याय 6/ मन्त्र 11
ऋषिः - मेधातिथिर्ऋषिः
देवता - वातो देवता
छन्दः - स्वराट् प्राजापत्या बृहती,भूरिक् आर्षी उष्णिक्,निचृत् गायत्री,
स्वरः - ऋषभः
1
घृ॒तेना॒क्तौ प॒शूँस्त्रा॑येथा॒ रेव॑ति॒ यज॑माने प्रि॒यं धाऽआवि॑श। उ॒रोर॒न्तरि॑क्षात् स॒जूर्दे॒वेन॒ वाते॑ना॒स्य ह॒विष॒स्त्मना॑ यज॒ सम॑स्य त॒न्वा भव। वर्षो॒ वर्षी॑यसि य॒ज्ञे य॒ज्ञप॑तिं धाः॒ स्वाहा॑ दे॒वेभ्यो॑ दे॒वेभ्यः॒ स्वाहा॑॥११॥
स्वर सहित पद पाठघृ॒तेन॑। अ॒क्तौ। प॒शून्। त्रा॒ये॒था॒म्। रेव॑ति। यज॑माने। प्रि॒यम्। धाः॒। आ। वि॒श॒। उ॒रोः। अ॒न्तरि॑क्षात्। स॒जूरिति॑ स॒ऽजूः। दे॒वेन॑। वाते॑न। अ॒स्य। ह॒विषः॑। त्मना॑। य॒ज॒। सम्। अ॒स्य॒। त॒न्वा᳖। भ॒व॒। वर्षो॒ऽइति॒ वर्षो॒। वर्षीय॑सि। य॒ज्ञे। य॒ज्ञप॑ति॒मिति॑ य॒ज्ञऽप॑तिम्। धाः॒। स्वाहा॑। दे॒वेभ्यः॑। दे॒वेभ्यः॑। स्वाहा॑ ॥११॥
स्वर रहित मन्त्र
घृतेनाक्तौ पशूँस्त्रायेथाँ रेवति यजमाने प्रियन्धाऽआविश । उरोरन्तरिक्षात्सजूर्देवेन वातेनास्य हविषस्त्मना यज समस्य तन्वा भव । वर्षा वर्षीयसि यज्ञे यज्ञप्तिन्धाः स्वाहा देवेभ्यो देवेभ्यः स्वाहा ॥
स्वर रहित पद पाठ
घृतेन। अक्तौ। पशून्। त्रायेथाम्। रेवति। यजमाने। प्रियम्। धाः। आ। विश। उरोः। अन्तरिक्षात्। सजूरिति सऽजूः। देवेन। वातेन। अस्य। हविषः। त्मना। यज। सम्। अस्य। तन्वा। भव। वर्षोऽइति वर्षो। वर्षीयसि। यज्ञे। यज्ञपतिमिति यज्ञऽपतिम्। धाः। स्वाहा। देवेभ्यः। देवेभ्यः। स्वाहा॥११॥
विषय - अब यज्ञ करने और कराने वालों के कर्त्तव्य का उपदेश किया जाता है॥
भाषार्थ -
हे (घृतेन+अक्तौ) घृत चाहने वाले यज्ञ करने और यज्ञ कराने वालो! तुम दोनों (पशून्) गौ आदि पशुओं की (त्रायेथाम्) रक्षा करो। और तुम एक-एक होकर (देवेन) सर्वव्यापक (वातेन) वायु के साथ (सजू:) मित्र के समान (उरो:) बृहत् (अन्तरिक्षात्) आकाश से (प्रियम्) प्रेम उत्पन्न करने वाले सुख को (रेवति) उत्तम ऐश्वर्य सम्पन्न (यजमाने) यज्ञ करने वाले पुरुष में (धाः) स्थापित करो, और (आविश) उसके अन्तःकरण में प्रविष्ट हो जाओ, इस यजमान की (हविषः) हवि के (त्मना) आत्मा के साथ (यज) संगत हो जाओ, और (अस्य) इसके (तन्वा) शरीर के साथ (सम्+भव) एक होकर रहो, भेदभाव न रखो।
हे (वर्षो) यज्ञ के द्वारा सब सुखों की वर्षा करने वाले आप (देवेभ्यः) शुभ कर्मों के अनुष्ठान से प्रकाशित धार्मिक विद्वानों के लिये (स्वाहा ) सत्कार के अनुकूल एवं (देवेभ्यः) शुभ गुणों की प्राप्ति के लिये (स्वाहा) सत्कार के अनुरूप, तथा उसके यज्ञ को देखने के इच्छुक होकर बार-बार आने वाले विद्वानों के लिये अनेक बार सत्कारपूर्ण वाणी को उच्चारण करके (वर्षीयसि) सब सुखों की वर्षा करने वाले (यज्ञे) यज्ञ में (यज्ञपतिम्) यज्ञरक्षक को (धाः) स्थिर करो ॥ ६। ११।।
भावार्थ - यज्ञ के लिये घृत आदि को प्राप्त करने के इच्छुक मनुष्य पशुओं की रक्षा करें, घृत आदि श्रेष्ठ द्रव्य से अग्निहोत्र आदि यज्ञों को सिद्ध करके, उनसे जल और वायु को शुद्ध कर सब प्राणियों का अभीष्ट सिद्ध करें ॥ ६। ११।।
प्रमाणार्थ -
(धाः) धेहि। यहाँ लोट् अर्थ में लुङ् लकार है तथा 'अट्' का अभाव है। (हविष:) यहाँ कर्म में षष्ठी विभक्ति है। इस मन्त्र की व्याख्या शत० ( ३।८।१।५-१६ ) में की गई है।। ६। ११।।
भाष्यसार - यज्ञ करने-कराने वालों का कर्त्तव्य--यज्ञ के लिये घृत आदि को प्राप्त करने के इच्छुक यज्ञ करने और कराने वाले मनुष्य गौ आदि पशुओं की रक्षा करें। वे दोनों घृत आदि उत्तम द्रव्यों से अग्निहोत्र आदि यज्ञों को सिद्ध करके सर्व-गत वायु के साथ विशाल आकाश से प्रसन्नता उत्पन्न करने वाले सुख को ऐश्वर्यवान् यजमान में स्थापित करें। यज्ञ से अपने अन्तःकरण की वृत्तियों को प्राप्त करें, जानें,अन्तःकरण में प्रविष्ट हों। यज्ञ की हवि के साथ संगत हों, हवि के स्वरूप के समान एक होकर रहें, भेदभाव उत्पन्न न करें। यज्ञ करने-कराने वाले यज्ञ कर्म से सबको सुख से सींचने वाले हों और वे सत्कर्मों के अनुष्ठान से प्रकाशित धार्मिक विद्वानों के लिये उनके सत्कार के अनुकूल वाणी बोलें। उनके यज्ञ को देखने की इच्छा से बार-बार आने वाले विद्वानों के लिये भी अनेक बार सत्कारपूर्ण वाणी बोलें। सब सुखों की वर्षा करने वाले यज्ञ में यजमान को स्थिर रखें। यज्ञ से जल और वायु की शुद्धि से सब प्राणियों का अभीष्ट सिद्ध करें।। ६। ११।।
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