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  • यजुर्वेद - अध्याय 17/ मन्त्र 7
    ऋषिः - मेधातिथिर्ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - आर्षी बृहती स्वरः - मध्यमः
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    अ॒पामि॒दं न्यय॑नꣳ समु॒द्रस्य॑ नि॒वेश॑नम्। अ॒न्याँस्ते॑ऽअ॒स्मत्त॑पन्तु हे॒तयः॑ पाव॒कोऽअ॒स्मभ्य॑ꣳ शि॒वो भ॑व॥७॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒पाम्। इ॒दम्। न्यय॑न॒मिति॑ नि॒ऽअय॑नम्। स॒मु॒द्रस्य॑। नि॒वेश॑न॒मिति॑ नि॒ऽवेश॑नम्। अ॒न्यान्। ते॒। अ॒स्मत्। त॒प॒न्तु॒। हे॒तयः॑। पा॒व॒कः। अ॒स्मभ्य॑म्। शि॒वः। भ॒व॒ ॥७ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अपामिदन्न्ययनँ समुद्रस्य निवेशनम् अन्याँस्तेऽअस्मत्तपन्तु हेतयः पावकोऽअस्मभ्यँ शिवो भव ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अपाम्। इदम्। न्ययनमिति निऽअयनम्। समुद्रस्य। निवेशनमिति निऽवेशनम्। अन्यान्। ते। अस्मत्। तपन्तु। हेतयः। पावकः। अस्मभ्यम्। शिवः। भव॥७॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 17; मन्त्र » 7
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    भावार्थ - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. ज्याप्रमाणे जलाचा आधार समुद्र, समुद्राचा आधार भूमी, भूमीचा आधार आकाश असते त्याप्रमाणे माणसांनी गृहस्थाश्रमातील सर्व वस्तू ज्याच्या आश्रयाने टिकतात असे घर बांधून उत्तम आचरण करावे व श्रेष्ठांचे रक्षण आणि दुष्टांचे दमन कावे.

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