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  • यजुर्वेद - अध्याय 20/ मन्त्र 17
    ऋषिः - प्रजापतिर्ऋषिः देवता - लिङ्गोक्ता देवताः छन्दः - भुरिक् त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    यद् ग्रामे॒ यदर॑ण्ये॒ यत्स॒भायां॒ यदि॑न्द्रि॒ये। यच्छू॒द्रे यदर्ये॒ यदेन॑श्चकृ॒मा व॒यं यदेक॒स्याधि॒ धर्म॑णि॒ तस्या॑व॒यज॑नमसि॥१७॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत्। ग्रामे। यत्। अर॑ण्ये। यत्। स॒भाया॑म्। यत्। इ॒न्द्रि॒ये। यत्। शू॒द्रे। यत्। अर्ये॑। यत्। एनः॑। च॒कृ॒म। व॒यम्। यत्। एक॑स्य। अधि॑। धर्म॑णि। तस्य॑। अ॒व॒यज॑न॒मित्य॑व॒ऽयज॑नम्। अ॒सि॒ ॥१७ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यद्ग्रामे यदरण्ये यत्सभायाँयदिन्द्रिये । यच्छूद्रे यदर्ये यदेनश्चकृमा वयँयदेकस्याधि धर्मणि तस्यावयजनमसि ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    यत्। ग्रामे। यत्। अरण्ये। यत्। सभायाम्। यत्। इन्द्रिये। यत्। शूद्रे। यत्। अर्ये। यत्। एनः। चकृम। वयम्। यत्। एकस्य। अधि। धर्मणि। तस्य। अवयजनमित्यवऽयजनम्। असि॥१७॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 20; मन्त्र » 17
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    भावार्थ - माणसांनी कधीही केव्हाही पापाचरण करून नये. जर एखाद्या वेळी हातून पाप घडले तर आपला परिवार, विद्वान व राज्यसभा यांच्यासमोर सत्य कबूल करावे. धार्मिक अध्यापक व उपदेशकांनी सर्वांना धर्माचरणात युक्त करावे. कारण माणसांना त्यांच्यापेक्षा सुसंस्कारित करणारे कोण बरे असू शकेल?

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