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  • यजुर्वेद - अध्याय 28/ मन्त्र 3
    ऋषिः - बृहदुक्थो वामदेव ऋषिः देवता - इन्द्रो देवता छन्दः - स्वराट्पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः
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    होता॑ यक्ष॒दिडा॑भि॒रिन्द्र॑मीडि॒तमा॒जुह्वा॑न॒मम॑र्त्यम्। दे॒वो दे॒वैः सवी॑र्यो॒ वज्र॑हस्तः पुरन्द॒रो वेत्वाज्य॑स्य॒ होत॒र्यज॑॥३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    होता॑। य॒क्ष॒त्। इडा॑भिः। इन्द्र॑म्। ई॒डि॒तम्। आ॒जुह्वा॑न॒मित्या॒ऽजुह्वा॑नम्। अम॑र्त्यम्। दे॒वः। दे॒वैः। सवी॑र्य॒ इति॒ सऽवी॑र्यः। वज्र॑हस्त॒ इति॒ वज्र॑ऽहस्तः। पु॒र॒न्द॒र इति॑ पुरम्ऽद॒रः। वेतु॑। आज्य॑स्य। होतः॑। यज॑ ॥३ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    होता यक्षदिडाभिरिन्द्रमीडितमाजुह्वानममर्त्यम् । देवो देवैः सवीर्या वज्रहस्तः पुरन्दरो वेत्वाज्यस्य होतर्यज ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    होता। यक्षत्। इडाभिः। इन्द्रम्। ईडितम्। आजुह्वानमित्याऽजुह्वानम्। अमर्त्यम्। देवः। देवैः। सवीर्य इति सऽवीर्यः। वज्रहस्त इति वज्रऽहस्तः। पुरन्दर इति पुरम्ऽदरः। वेतु। आज्यस्य। होतः। यज॥३॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 28; मन्त्र » 3
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    भावार्थ - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसे राजे व राजपुरुष पित्याप्रमाणे प्रजेचे पालन करतात तसे प्रजेने त्यांना पित्याप्रमाणे समजावे. जे आप्त विद्वानांच्या अनुमतीने सर्व काम करतात ते भ्रमात अडकत नाहीत.

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