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  • यजुर्वेद - अध्याय 29/ मन्त्र 6
    ऋषिः - बृहदुक्थो वामदेव्य ऋषिः देवता - मनुष्या देवताः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    अ॒न्त॒रा मि॒त्रावरु॑णा॒ चर॑न्ती॒ मुखं॑ य॒ज्ञाना॑म॒भि सं॑विदा॒ने।उ॒षासा॑ वासुहिर॒ण्ये सु॑शि॒ल्पेऽऋ॒तस्य॒ योना॑वि॒ह सा॑दयाभि॥६॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒न्त॒रा। मि॒त्रावरु॑णा। चर॑न्ती॒ऽइति॒ चर॑न्ती॒। मुख॑म्। य॒ज्ञाना॑म्। अ॒भि। सं॒वि॒दा॒ने इति॑ सम्ऽविदा॒ने उ॒षासा॑। उ॒षसेत्यु॒षसा॑। वा॒म्। सु॒हि॒र॒ण्ये इति॑ सुऽहिर॒ण्ये। सु॒शि॒ल्पे इति॑ सुऽशि॒ल्पे। ऋ॒तस्य॑। योनौ॑। इ॒ह। सा॒द॒या॒मि॒ ॥६ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अन्तरा मित्रावरुणा चरन्ती मुखँयज्ञानामभिसँविदाने । उषासा वाँ सुहिरण्ये सुशिल्पेऽऋतस्य योनाविह सादयामि ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अन्तरा। मित्रावरुणा। चरन्तीऽइति चरन्ती। मुखम्। यज्ञानाम्। अभि। संविदाने इति सम्ऽविदाने उषासा। उषसेत्युषसा। वाम्। सुहिरण्ये इति सुऽहिरण्ये। सुशिल्पे इति सुऽशिल्पे। ऋतस्य। योनौ। इह। सादयामि॥६॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 29; मन्त्र » 6
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    भावार्थ - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसे शुद्ध वातावरण असलेल्या स्थानी सकाळ व संध्याकाळची वेळ प्राणउदानाप्रमाणे सुखकारक असते. तसे शुद्ध हवा असलेल्या देशात मोठमोठे दरवाजे असलेली घरे सर्व प्रकारे सुखकारक असतात.

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