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  • यजुर्वेद - अध्याय 31/ मन्त्र 18
    ऋषिः - उत्तरनारायण ऋषिः देवता - आदित्यो देवता छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    वेदा॒हमे॒तं पुरु॑षं म॒हान्त॑मादि॒त्यव॑र्णं॒ तम॑सः प॒रस्ता॑त्।तमे॒व वि॑दि॒त्वाति॑ मृ॒त्युमे॑ति॒ नान्यः पन्था॑ विद्य॒तेऽय॑नाय॥१८॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वेद॑। अ॒हम्। ए॒तम्। पुरु॑षम्। म॒हान्त॑म्। आ॒दि॒त्यव॑र्ण॒मित्या॑दि॒त्यऽव॑र्णम्। तम॑सः। प॒रस्ता॑त् ॥ तम्। ए॒व। वि॒दि॒त्वा। अति॑। मृ॒त्युम्। ए॒ति॒। न। अ॒न्यः। पन्थाः॑। वि॒द्य॒ते॒। अय॑नाय ॥१८ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वेदाहमेतम्पुरुषम्महान्तमादित्यवर्णन्तमसः परस्तात् । तमेव विदित्वाति मृत्युमेति नान्यः पन्था विद्यतेयनाय ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    वेद। अहम्। एतम्। पुरुषम्। महान्तम्। आदित्यवर्णमित्यादित्यऽवर्णम्। तमसः। परस्तात्॥ तम्। एव। विदित्वा। अति। मृत्युम्। एति। न। अन्यः। पन्थाः। विद्यते। अयनाय॥१८॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 31; मन्त्र » 18
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    भावार्थ - माणसे जर इहलोक व परलोकाच्या सुखाच्या इच्छा बाळगतील, तर महान स्वयंप्रकाशी (सूर्याप्रमाणे) आनंदस्वरूप, (अंधःकारापासून) अज्ञानापासून दूर असलेल्या परमेश्वराला जाणूनच मृत्यू वगैरेच्या दुःख सागरातून पृथक होऊ शकतील. हाच (खरा) सुखदायक मार्ग आहे यापेक्षा कोणताही वेगळा असा मुक्तीचा मार्ग नाही.

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