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  • यजुर्वेद - अध्याय 33/ मन्त्र 93
    ऋषिः - सुहोत्र ऋषिः देवता - इन्द्राग्नी देवते छन्दः - भुरिगनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
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    इन्द्रा॑ग्नीऽअ॒पादि॒यं पूर्वागा॑त् प॒द्वती॑भ्यः।हि॒त्वी शिरो॑ जि॒ह्वया॒ वाव॑द॒च्चर॑त् त्रि॒ꣳशत् प॒दा न्य॑क्रमीत्॥९३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इन्द्रा॑ग्नी॒ऽइतीन्द्रा॑ग्नी। अ॒पात्। इ॒यम्। पूर्वा॑। आ। अ॒गा॒त्। प॒द्वती॑भ्यः॒ऽइति॑ प॒त्ऽवती॑भ्यः ॥ हि॒त्वी। शिरः। जि॒ह्वया॑। वाव॑दत्। चर॑त्। त्रि॒ꣳशत्। प॒दा। नि। अ॒क्र॒मी॒त् ॥९३ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्राग्नीऽअपादियम्पूर्वागात्पद्वतीभ्यः । हित्वी शिरो जिह्वया वावदच्चरत्त्रिँशत्पदा न्यक्रमीत् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्राग्नीऽइतीन्द्राग्नी। अपात्। इयम्। पूर्वा। आ। अगात्। पद्वतीभ्यःऽइति पत्ऽवतीभ्यः॥ हित्वी। शिरः। जिह्वया। वावदत्। चरत्। त्रिꣳशत्। पदा। नि। अक्रमीत्॥९३॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 33; मन्त्र » 93
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    भावार्थ - हे माणसांनो ! जी गतिमान आहे व मस्तक, पाय इत्यादी अवयवरहित असून, सर्व प्राणी जागृत होण्यापूर्वी कुक्कुट इत्यादींच्याद्वारे तिचे आगमन होते व तीस मुहूर्तानंतर (साठ घडी) प्रत्येक स्थान ती ताब्यात घेते अशा उषेचे सर्वांनी निद्रा व आळस सोडून स्वागत केले पाहिजे.

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