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  • यजुर्वेद - अध्याय 35/ मन्त्र 12
    ऋषिः - आदित्या देवा ऋषयः देवता - कृषीबला देवताः छन्दः - निचृदनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
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    सु॒मि॒त्रि॒या न॒ऽआप॒ऽओष॑धयः सन्तु दुर्मित्रि॒यास्तस्मै॑ सन्तु॒।योऽस्मान् द्वेष्टि॒ यं च॑ व॒यं द्वि॒ष्मः॥१२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सु॒मि॒त्रिया इति॑ सुऽमित्रि॒याः। नः॒। आपः॑। ओष॑धयः। स॒न्तु॒। दु॒र्मि॒त्रि॒या इति॑ दुःऽमित्रि॒याः। तस्मै॑। स॒न्तु॒ ॥ यः। अ॒स्मान्। द्वेष्टि॑। यम्। च॒। व॒यम्। द्वि॒ष्मः ॥१२ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सुमित्रिया नऽआप ओषधयः सन्तु दुर्मित्रियास्तस्मै सन्तु यो स्मान्द्वेष्टि यञ्च वयन्द्विष्मः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    सुमित्रिया इति सुऽमित्रियाः। नः। आपः। ओषधयः। सन्तु। दुर्मित्रिया इति दुःऽमित्रियाः। तस्मै। सन्तु॥ यः। अस्मान्। द्वेष्टि। यम्। च। वयम्। द्विष्मः॥१२॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 35; मन्त्र » 12
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    भावार्थ - जे रोग द्वेष इत्यादी दोष सोडून सर्वांशी आपल्या आत्म्याप्रमाणे वागतात त्या धर्मात्मा व्यक्तीसाठी सर्व जल, औषधे इत्यादी पदार्थ सुखकारी असतात व जे स्वार्थी आणि दुसऱ्यांचा द्वेष करतात त्या अधार्मिक लोकांसाठी वरील सर्व पदार्थ दुःखदायी असतात. माणसांनी धर्मात्मा लोकांबरोबर प्रेम व दुष्टांबरोबर सतत अप्रीती करावी; परंतु त्या दुष्टांचेही मनाने नेहमी कल्याणच इच्छावे.

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