ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 128/ मन्त्र 3
मयि॑ दे॒वा द्रवि॑ण॒मा य॑जन्तां॒ मय्या॒शीर॑स्तु॒ मयि॑ दे॒वहू॑तिः । दैव्या॒ होता॑रो वनुषन्त॒ पूर्वेऽरि॑ष्टाः स्याम त॒न्वा॑ सु॒वीरा॑: ॥
स्वर सहित पद पाठमयि॑ । दे॒वाः । द्रवि॑णम् । आ । य॒ज॒न्ता॒म् । मयि॑ । आ॒ऽशीः । अ॒स्तु॒ । मयि॑ । दे॒वऽहू॑तिः । दैव्याः॑ । होता॑रः । व॒नु॒ष॒न्त॒ । पूर्वे॑ । अरि॑ष्टाः । स्या॒म । त॒न्वा॑ । सु॒ऽवीराः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
मयि देवा द्रविणमा यजन्तां मय्याशीरस्तु मयि देवहूतिः । दैव्या होतारो वनुषन्त पूर्वेऽरिष्टाः स्याम तन्वा सुवीरा: ॥
स्वर रहित पद पाठमयि । देवाः । द्रविणम् । आ । यजन्ताम् । मयि । आऽशीः । अस्तु । मयि । देवऽहूतिः । दैव्याः । होतारः । वनुषन्त । पूर्वे । अरिष्टाः । स्याम । तन्वा । सुऽवीराः ॥ १०.१२८.३
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 128; मन्त्र » 3
अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 15; मन्त्र » 3
अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 15; मन्त्र » 3
विषय - देव द्रविणों की प्राप्ति
पदार्थ -
[१] (देवाः) = सब सूर्य आदि देव (मयि) = मेरे में (द्रविणं आयजन्ताम्) = अपने-अपने ऐश्वर्य का संगमन करें। सूर्य से मुझे चक्षुशक्ति प्राप्त हो तो चन्द्रमा से मुझे मानस आह्लाद की प्राप्ति हो । (मयि आशीः अस्तुः) = मेरे में सदा इन देव द्रविणों को प्राप्त करने की कामना हो और (मयि देवहूतिः) = मेरे में देवों का पुकारना व देवों का आराधन रहे। मैं उस देवाधिदेव प्रभु को सदा पुकारनेवाला होऊँ। [२] मेरी सब इन्द्रियाँ (दैव्याः) = उस देव की ओर चलनेवाली (होतार:) = जीवन-यज्ञ के चलानेवाली व दानपूर्वक अदनवाली हों। ये सब (पूर्वे) = पालन व पूरण करनेवाली होती हुई (वनुषन्त) = उस प्रभु का सम्भजन करनेवाली हों । अथवा देव द्रविणों का विजय करनेवाली बनें। [३] हम (तन्वा) = अपने इस शरीर से (अरिष्टा:) = अहिंसित हों, रोगों से आक्रान्त न हों। और (सुवीराः) = उत्तम वीर बनें। वस्तुतः रोगों से अनतिक्रान्त वीर पुरुष प्रभु का सच्चा आराधक है, इसने प्रभु से दिये शरीर का समुचित समादर किया है।
भावार्थ - भावार्थ- मैं सूर्यादि देवों से दृष्टि शक्ति आदि द्रविणों को प्राप्त करूँ। शरीर को अहिंसित व वीर बनाता हुआ प्रभु का पूजन करूँ ।
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