ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 146/ मन्त्र 6
आञ्ज॑नगन्धिं सुर॒भिं ब॑ह्व॒न्नामकृ॑षीवलाम् । प्राहं मृ॒गाणां॑ मा॒तर॑मरण्या॒निम॑शंसिषम् ॥
स्वर सहित पद पाठआञ्ज॑नऽगन्धिम् । सु॒र॒भिम् । ब॒हु॒ऽअ॒न्नाम् । अकृ॑षिऽवलाम् । प्र । अ॒हम् । मृ॒गाणा॑म् । मा॒तर॑म् । अ॒र॒ण्या॒निम् । अ॒शं॒सि॒ष॒म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
आञ्जनगन्धिं सुरभिं बह्वन्नामकृषीवलाम् । प्राहं मृगाणां मातरमरण्यानिमशंसिषम् ॥
स्वर रहित पद पाठआञ्जनऽगन्धिम् । सुरभिम् । बहुऽअन्नाम् । अकृषिऽवलाम् । प्र । अहम् । मृगाणाम् । मातरम् । अरण्यानिम् । अशंसिषम् ॥ १०.१४६.६
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 146; मन्त्र » 6
अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 4; मन्त्र » 6
अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 4; मन्त्र » 6
विषय - आत्मनिरीक्षण
पदार्थ -
[१] (अहम्) = मैं (अरण्यानिम्) = इस वनस्थ वृत्ति का (प्र अशंसिषम्) = प्रकर्षेण शंसन करता हूँ जो वनस्थ वृत्ति (आञ्जनगन्धिम्) = [ अञ्जनम् = right] अज्ञानान्धकार की रात्रि को विनष्ट करनेवाली है। (सुरभिम्) = [wise, learued, good, virtuous ] ज्ञान को बढ़ानेवाली व दिव्यता को विकसित करनेवाली है। बहु (अन्नाम्) = ' शान्तिर्वा अन्नं' [ऐ० ५। ७] बहुत शान्तिवाली है। वनस्थ वृत्ति में पुरुष हबड़ - दबड़ [भागदौड़] को छोड़कर शान्त वृत्ति को धारण करने का प्रयत्न करता है। (अकृषीवलाम्) = [अ - कृषी-वल] चीर-फाड़ [कृषः to tear] के आवरणों से रहित हो । वनस्थ वृत्ति में दूसरों को कष्ट में डालने की प्रवृत्ति ही नहीं रहती । [२] (मृगाणां मातरम्) = यह वनस्थ वृत्ति [मृग अन्वेषणे] आत्मनिरीक्षण करनेवालों का निर्माण करनेवाली है। इस वानप्रस्थ ने मुख्यरूप से आत्मनिरीक्षण करते हुए, अपने जीवन को पवित्र बनाकर, प्रभु का दर्शन करना है।
भावार्थ - भावार्थ- गृहस्थोपरान्त हम वनस्थ वृत्ति को अपनाएँ । सब अज्ञानों को दूर करते हुए, आत्मनिरीक्षण द्वारा अपने को पवित्र बनाएँ और प्रभु-दर्शन का प्रयत्न करें। इस सूक्त में वानप्रस्थ का सुन्दर चित्रण हुआ है यह ग्राम को भूलने का प्रयत्न करता है। [१] प्रभु की वाणियों में जीवन के शोधन का प्रयत्न करता है। [२] सादा जीवन बिताते हुए शून्यावस्था को जाने का अभ्यास करता है। [३] 'स्वाध्याय, वासनाविदारण, प्रभु स्मरण' इसके मुख्य कार्यक्रम हैं । [४] अहिंसा की वृत्ति को अपनाता हुआ क्रियाशील बनता है। [५] आत्मनिरीक्षण करता हुआ प्रभु-दर्शन के लिए यत्नशील होता है। [६] निरन्तर स्वाध्याय आदि के द्वारा यह 'सुवेदा: ' उत्तम ज्ञानैश्वर्यवाला बनता है। ज्ञान द्वारा वासनाओं को शीर्ण करनेवाला 'शैरीषि' होता है। यह प्रभु प्रार्थना करता हुआ कहता है-
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