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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 147 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 147/ मन्त्र 1
    ऋषिः - सुवेदाः शैरीषिः देवता - इन्द्र: छन्दः - विराड्जगती स्वरः - निषादः

    श्रत्ते॑ दधामि प्रथ॒माय॑ म॒न्यवेऽह॒न्यद्वृ॒त्रं नर्यं॑ वि॒वेर॒पः । उ॒भे यत्त्वा॒ भव॑तो॒ रोद॑सी॒ अनु॒ रेज॑ते॒ शुष्मा॑त्पृथि॒वी चि॑दद्रिवः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    श्रत् । ते॒ । द॒धा॒मि॒ । प्र॒थ॒माय॑ । म॒न्यवे॑ । अह॑न् । यत् । वृ॒त्रम् । नर्य॑म् । वि॒वेः । अ॒पः । उ॒भे इति॑ । यत् । त्वा॒ । भव॑तः । रोद॑सी॒ इति॑ । अनु॑ । रेज॑ते । शुष्मा॑त् । पृ॒थि॒वी । चि॒त् । अ॒द्रि॒ऽवः॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    श्रत्ते दधामि प्रथमाय मन्यवेऽहन्यद्वृत्रं नर्यं विवेरपः । उभे यत्त्वा भवतो रोदसी अनु रेजते शुष्मात्पृथिवी चिदद्रिवः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    श्रत् । ते । दधामि । प्रथमाय । मन्यवे । अहन् । यत् । वृत्रम् । नर्यम् । विवेः । अपः । उभे इति । यत् । त्वा । भवतः । रोदसी इति । अनु । रेजते । शुष्मात् । पृथिवी । चित् । अद्रिऽवः ॥ १०.१४७.१

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 147; मन्त्र » 1
    अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 5; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    [१] हे प्रभो ! मैं (ते) = आपके (प्रथमाय) = सृष्टि के प्रारम्भ में दिये जानेवाले (मन्यवे) = इस वेदरूप ज्ञान के लिये (श्रद् दधामि) = श्रद्धा को धारण करता हूँ । श्रद्धापूर्वक इसका अध्ययन करता हूँ । (यत्) = क्योंकि इस ज्ञान के द्वारा आप (वृत्रम्) = ज्ञान की आवरणभूत वासना का अहन्- विनाश करते हैं। और (नर्यं अपः) = नर हितकारी कर्मों को विवेः प्राप्त कराते हैं [आगमः] । मनुष्य ज्ञान की प्राप्ति में प्रवृत्त होता है तो उसके जीवन में दो परिणाम होते हैं । एक तो वह वासनाओं से अपने को बचा पाता है और दूसरे लोकहित के कार्यों में सतत प्रवृत्त रहता है। [२] हे (अद्रिवः) = वज्रहस्त प्रभो! [अद्रिः वज्रः] (यत्) = जब (उभे रोदसी) = ये दोनों द्युलोक व पृथिवीलोक त्वा (अनुभवतः) = आपके अनुकूल होते हैं। आपके (शुष्मात्) = बल से (पृथिवी चित्) = यह विस्तृत अन्तरिक्ष भी (रेजते) = कम्पित हो उठता है। सो जब एक उपासक वेदज्ञान की साधना करता हुआ वासनाओं से ऊपर उठता है और लोकहित के कर्मों में प्रवृत्त होता है तो ये द्युलोक, पृथिवी लोक व अन्तरिक्ष लोक उसके भी अनुकूल होते हैं । उसका मस्तिष्करूप द्युलोक ज्ञानसूर्य से दीप्त होता है, उसका यह शरीररूप पृथिवी लोक दृढ़ होता है। तथा उसका यह हृदयान्तरिक्ष वासनाओं के तूफानों से आन्दोलित नहीं होता रहता । इसके हृदयान्तरिक्ष में चन्द्र की निर्मल ज्योत्सा छिटक जाती है और यह मनः प्रसाद का अनुभव करता है ।

    भावार्थ - भावार्थ- ज्ञान को श्रद्धापूर्वक प्राप्त करने का प्रयत्न करने पर मनुष्य वासना से ऊपर उठता है, लोकहित के कर्मों में प्रवृत्त होता है और मस्तिष्क, शरीर व हृदय को क्रमशः दीप्त दृढ़ तथा दिव्य व दयार्द्र बना पाता है।

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