ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 160/ मन्त्र 4
ऋषिः - पूरणो वैश्वामित्रः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - विराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
अनु॑स्पष्टो भवत्ये॒षो अ॑स्य॒ यो अ॑स्मै रे॒वान्न सु॒नोति॒ सोम॑म् । निर॑र॒त्नौ म॒घवा॒ तं द॑धाति ब्रह्म॒द्विषो॑ ह॒न्त्यना॑नुदिष्टः ॥
स्वर सहित पद पाठअनु॑ऽस्पष्टः । भ॒व॒ति॒ । ए॒षः । अ॒स्य॒ । यः । अ॒स्मै॒ । रे॒वान् । न । सु॒नोति॑ । सोम॑म् । निः । अ॒र॒त्नौ । म॒घऽवा॑ । तम् । द॒धा॒ति॒ । ब्र॒ह्म॒ऽद्विषः॑ । ह॒न्ति॒ । अन॑नुऽदिष्टः ॥
स्वर रहित मन्त्र
अनुस्पष्टो भवत्येषो अस्य यो अस्मै रेवान्न सुनोति सोमम् । निररत्नौ मघवा तं दधाति ब्रह्मद्विषो हन्त्यनानुदिष्टः ॥
स्वर रहित पद पाठअनुऽस्पष्टः । भवति । एषः । अस्य । यः । अस्मै । रेवान् । न । सुनोति । सोमम् । निः । अरत्नौ । मघऽवा । तम् । दधाति । ब्रह्मऽद्विषः । हन्ति । अननुऽदिष्टः ॥ १०.१६०.४
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 160; मन्त्र » 4
अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 18; मन्त्र » 4
अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 18; मन्त्र » 4
विषय - विलास का परिणाम
पदार्थ -
[१] (यः) = जो (रेवान्) = धनवान् होता हुआ (अस्मै) = इस प्रभु प्राप्ति के लिये (सोमं न सुनोति) = सोम का अभिषव नहीं करता, सोम का सम्पादन न करता हुआ जो विलासमय जीवन को बिताता हुआ सोम का [वीर्य का] विनाश करता है, (एषः) = यह व्यक्ति (अस्य) = इस प्रभु की (अनुस्पष्टः भवति) = दृष्टि में स्थापित होता है । [स्पश = to see ] प्रभु की इस पर नजर होती है । उसी प्रकार जैसे कि एक अशुभ आचरणवाला व्यक्ति राजपुरुषों की नजरों में होता है । [२] यदि यह अधिक विलास में चलता है, तो (तम्) = उस विलासमय जीवनवाले धनी पुरुष को (मघवा) = यह ऐश्वर्यशाली प्रभु (अरत्नौ) = मुट्ठी में (निः दधाति) = निश्चय से धारण करता है, अर्थात् उसे कैद-सी में डालता है । और भी अधिक विकृति के होने पर इन (ब्रह्मद्विषः) = वेद के शत्रुओं को, ज्ञान से विपरीत मार्ग पर चलनेवालों को वे प्रभु (हन्ति) = विनष्ट करते हैं। (अनानुदिष्ट:) = ये प्रभु कभी अनुदिष्ट नहीं हो पाते। प्रभु तक कोई सिफारिश नहीं पहुँचाई जा सकती। [३] धन के कारण विलासमय जीवनवाला व्यक्ति इस प्रकार प्रभु से 'अनुस्पष्ट, धृत व दण्डित' होता है । हमें चाहिये यह कि हम विलास के मार्ग पर न जाकर तप के मार्ग पर ही चलें ।
भावार्थ - भावार्थ - विलासी पुरुष प्रभु के दण्ड का पात्र होता है ।
- सूचना - यहाँ दण्डक्रम बड़ा स्पष्ट है। प्रभु सर्वप्रथम चेतावनी - सी देते हैं, पुनः किसी प्रकार रोगादि के द्वारा उसे बद्ध कर देते हैं। विवशता में समाप्त कर देते हैं । मृत्यु भी अशुभ वृत्ति के भुलाने में सहायक होती है।
इस भाष्य को एडिट करें