ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 160/ मन्त्र 5
ऋषिः - पूरणो वैश्वामित्रः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - विराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
अ॒श्वा॒यन्तो॑ ग॒व्यन्तो॑ वा॒जय॑न्तो॒ हवा॑महे॒ त्वोप॑गन्त॒वा उ॑ । आ॒भूष॑न्तस्ते सुम॒तौ नवा॑यां व॒यमि॑न्द्र त्वा शु॒नं हु॑वेम ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒श्व॒यन्तः॑ । ग॒व्यन्तः॑ । वा॒जय॑न्तः । हवा॑महे । त्वा॒ । उप॑ऽग॒न्त॒वै । ऊँ॒ इति॑ । आ॒ऽभूष॑न्तः । ते॒ । सु॒ऽम॒तौ । नवा॑याम् । व॒यम् । इ॒न्द्र॒ । त्वा॒ । शु॒नम् । हु॒वे॒म॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अश्वायन्तो गव्यन्तो वाजयन्तो हवामहे त्वोपगन्तवा उ । आभूषन्तस्ते सुमतौ नवायां वयमिन्द्र त्वा शुनं हुवेम ॥
स्वर रहित पद पाठअश्वयन्तः । गव्यन्तः । वाजयन्तः । हवामहे । त्वा । उपऽगन्तवै । ऊँ इति । आऽभूषन्तः । ते । सुऽमतौ । नवायाम् । वयम् । इन्द्र । त्वा । शुनम् । हुवेम ॥ १०.१६०.५
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 160; मन्त्र » 5
अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 18; मन्त्र » 5
अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 18; मन्त्र » 5
विषय - तपस्वी जीवन
पदार्थ -
[१] गत मन्त्र में वर्णित विलासमय जीवन से विपरीत जीवन का चित्रण करते हुए कहते हैं कि (अश्वायन्तः) = शक्ति की कामना करते हुए हम (उपगन्तवा उ) = आपके प्रभु के समीप प्राप्त होने के लिये (त्वा हवामहे) = आपको पुकारते हैं। प्रभु की आराधना से जीवन का मार्ग विलास का नहीं होता और परिणामतः कर्मेन्द्रियाँ व ज्ञानेन्द्रियाँ सशक्त बनी रहती हैं। शरीर की शक्ति का विनाश नहीं होता। [२] हे प्रभो ! इस प्रकार (ते) = आपकी (नवायाम्) = अत्यन्त स्तुत्य (सुमतौ) = कल्याणीमति में (आभूषन्तः) = सदा वर्तमान होते हुए (वयम्) = हम, हे (इन्द्र) = सब शत्रुओं का विद्रावण करनेवाले प्रभो ! (शुनम्) = आनन्दस्वरूप (त्वा) = आपको (हुवेम) = पुकारते हैं। आपकी आराधना में चलते हुए ही हम आपकी कल्याणीमति को प्राप्त करते हैं ।
भावार्थ - भावार्थ - उत्तम कर्मेन्द्रियों, ज्ञानेन्द्रियों व शक्ति का सम्पादन करते हुए हम प्रभु का उपासन करें। प्रभु हमें शुभ बुद्धि को प्राप्त कराते हैं । सूक्त का मुख्य विषय यही है कि सोम के रक्षण के द्वारा जीवन को उत्तम बनायें । इसका परिणाम यह होगा कि हमारे सब रोग विनष्ट हो जायेंगे। हम 'यक्ष्मनाशन: ' होंगे। नीरोग बनकर यज्ञात्मक कर्मों से लोकहित में प्रवृत्त होने से हम 'प्राजापत्य: ' होंगे। यही अगले सूक्त का ऋषि है-
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